गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 289

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 8

मन-बुद्धि-चित्त एवं अहंकार का विस्मरण हो जाने पर चित्त निर्विकार हो जाता है, निर्विकार, एकाग्रचित्त से ही भगवत्-साक्षात्कार सम्भव है। विलय एवं विक्षेप-शून्य एकाग्रचित्त में ही प्रभु-प्राकट्î सम्भव है। क्षण भर के लिए भी चित्त का वृत्ति-शून्य हो जाना अत्यन्त कठिन है तथापि चित्त के निर्वृत्तिक होते ही तत्क्षण भगवत्-प्राकट्य, भगवत्-साक्षात्कार हो जाता है। तुरीय-तत्त्व अनुभव हेतु चित्त का निर्वृत्तिक होना अनिवार्य है। सगुण, साकार, सच्चिदानन्दघन, परमात्मा की उपासना करते-करते अन्तःकरण अनायासेन निर्वृत्त हो जाता है; अतः प्रमेय, प्रमाण, प्रमाता की परिसमाप्ति हो जाती है। यही तुरीय तत्त्व है।

‘एकमेकतराभावे यदा नोपलभामहे।
त्रितयंतत्र योवेद सआत्मास्वाश्रयाश्रयः।।[1]

अर्थात प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय इन तीनों में किसी एक के आभाव में अन्य की सिद्धि नहीं हो सकती। इन तीनों का साक्षात्कार आत्मा से होता है। आत्मा अनन्यश्रय होते हुए अन्य सब का आश्रय है। उपासना-लक्षण क्रिया से अनन्त, अखण्ड, निर्विकार दिव्य-स्वरूप का अनायासेन प्राकट्य हो जाता है।

‘वेदक्रियायोगतपःसमाधिभिस्तवार्हणं येन जनः समीहते।’[2]

‘देवक्रियायां प्रतियन्त्यथापिहि।’[3]

ब्रह्माजी कहते हैं-

‘अथापि ते देव पदाम्बुजद्वयप्रसादलेशानुगृहीत एव हि।
जनाति तत्त्वं भगवन्महिम्नो न चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन।।[4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीम0 भा0 2/1/9
  2. श्रीम0 भा0 10/2/34
  3. श्रीम0 भा0 10/2/36
  4. श्रीम0 भा0 10/14/29

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
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17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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