गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 8इसी तरह राधे! तुम ही मेरी एकमात्र गति हो ऐसी आपकी वाणी प्रतारणा-पूर्ण, छल-छटा-युक्त ही थी, अन्यथा आप तिरोहित होकर हमको अपने विप्रयोग-जन्य तीव्र-ताप से विदग्ध नहीं करते। ‘बुध मनोश्रया मुह्यतीः’ बुध हृदय को भी आकर्षित कर लेने वाली इस मनोहरा वाणी मुग्ध हो जाने के फल स्वरूप ही आज हम विदग्ध, संतप्त हो मूर्च्छा की अन्त्यदशा को प्राप्त हो रही हैं। एतावता, हे सखे! तुमने हमारा अपकार ही किया परन्तु हम तो सदा ही तुम्हारा शुभ चाहती हैं; अतः ‘आत्मानं आप्याय-यस्व अधर-सीधुना’ आओ, हमारे अधर-सुधा-रस से अपना उपोद्वलन करो ‘अधरं अवरं सिध्वयि यस्मात्’ हमारी इस अधर-सुधा से अमृत भी निकृष्टु है। हे सखे! आप वीर हैं; आपकी भृकुटियाँ ही आपका धनुष एवं ईक्षण ही आपका बाण है; अतः आप भयभीत न हों प्रत्यक्ष हो जावें और हमारे ‘अधरं अवरं सीधु यस्मात्तेन अधर सीधुनाऽऽप्याययस्व नः’ साथ ही आप उन ‘विधिकरीरिमा’ मुग्धा नायिकाओं का जो आपकी किंकरी हैं आप्यायन भी करें। उक्त उक्तियों का निवृत्ति-पक्षीय अर्थ हैं; परात्पर परब्रह्मही वेदों का महातात्पर्य हैं। कर्म-काण्ड एवं उपासना परक श्रुतियों का अवान्तर तात्पर्य भिन्न होते हुए भी महातात्पर्य परब्रह्म में ही है अतः वेद-ऋचाएँ गोपागंना रूप से मूर्तिमती हो भगवत्-स्तुति कर रही है:-हे सर्वाधिष्ठान! सर्वेश्वर! ‘लीलाविग्रहं धृत्वा’ लीला-विग्रह धारण कर अपनी अमृत-वर्षिणी वाणी ‘मधुरया गिरा वल्गु वाक्यया’ द्वारा ‘श्रुतिरूपा अस्मान् आप्याययस्व’ हम श्रुति रूपाओं का आप्यायन करें। वाणी द्वारा उद्भाषित नानाविध कर्कश तर्कों का अपनोदन एवं उनके प्रामाण्य को सुव्यवस्थापित करना ही श्रुतियों का आप्यानन करना है। ‘ईशावास्यमिदं सर्वं’, ‘तमेव विदित्वाऽतिंमृत्युमेति नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय।’ इत्यादि श्रुतियाँ बताती हैं कि सर्वाधिष्ठान; सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, सर्वप्राणिपरम-प्रेमास्पद, सर्वसंभजनीय, सर्व-प्रार्थनीय भगवान् का साक्षात्कार ही प्राणी का परम पुरुषार्थ है, सार है। वादी-जन अपने तर्कों द्वारा इन श्रुतियों का अन्यथा अर्थ कर देते हैं। |