गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6ब्रह्मादि देवगण भी इस त्रिगुणात्मिका माया, अजा से सदा भयभीत रहते हैं, तब माया-मोहग्रस्त प्राणी की तो कथा ही अकथ है। भगवत्-कथन हैः- ‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।’[2] जो मेरी शरण में आ जाता है उसको माया नहीं सताती। एक कथा है: कोई सन्त चले जा रहे थे कि उनको सामने से आती हुई अजा, माया, लगाम लिये हुए मिल गई। सन्त ने उनसे पूछा, देवी! आप कौन है? यह लगाम लेकर क्यों चल रही हैं? माया ने उत्तर दिया, ‘यहाँ एक महात्मा रहते हैं; वे वश में नहीं आ रहे हैं अतः इस लगाम से उनको बाँधने जा रही हूँ। संत कहने लगे ‘देवी! हम जैसों को कैसे बाँधोगी?’ माया ने उत्तर दिया, ‘तुम जैसे संतों के लिए लगाम की आवश्यकता नहीं होती; मैं तो यों ही उनके कंधे पर चढ़ जाती हूँ।’ संत क्रुद्ध होकर अपने स्थान पर चले गये। सहसा भयंकर वर्षा एवं तूफान आ गया। शीतकाल की अँधेरी रात में वन-प्रान्तर, वर्षा एवं तूफान के कारण और भी भयंकर हो उठा। इतने में ही महात्मा ने देखा कि कोई संत्रस्त, कोमलांगी सुन्दरी युवती रात्रि भर के लिए आश्रय माँग रही है। युवती को अपनी कुटी में विश्राम देना अनुचित मानकर वह महात्मा उस युवती को लेकर नदी के पार उसके घर पहुँचाने चल पड़े। बीच धार में पहुँचने पर युवती कहने लगी, ‘बाबा! अब मुझसे नहीं चला जाता’। संत ने विवश हो उसको कंधे पर बैठा लिया, युवती ने एड़ लगाते हुए कहा, ‘चलो, बाबा! चलो, हम तुम्हारे कंधे पर सवार हो गये हैं।’ संत की मोह-निद्रा भंग हुई तो देखा कि कहीं कुछ नहीं है; वह सब दृश्य तो केवज अजा, माया का ही चमत्कार था। महात्मा अत्यन्त लज्जित होकर पूछने लगे, देवी! क्या कोई ऐसा भी है जो आप की लगाम के वश में भी नहीं आता।’ माया देवी ने उत्तर दिया, ‘हाँ! ऐसे भी कुछ उजड्ड लोग हैं जिन पर हमारी लगाम का प्रभाव नहीं होता। चलो तुमको दिखा दें।’ सन्त माया देवी के साथ चल पड़े; कुछ दूर जाने पर देखा कि कोई महात्मा गंगा किनारे समाधिस्थ हैं; इतने में ही गाँव से कुछ स्त्रियाँ आईं और बड़ी श्रद्धा-भक्ति से महात्मा का पूजन किया; फिर कहने लगीं महाराज! अब हम लोग गंगा-स्नान करना चाह रही हैं; यह हमारा बच्चा छोटा है इसको आप के पास बैठा जाती हैं; कृपा कर जरा इसको देखते रहें।’ अपने बच्चे को वहीं लेटाकर औरतें गंगा-स्नान को चली गईं; कोई भेड़ियाँ आकर बच्चे को खा गया। लौटकर औरतों ने महात्मा से अपना बच्चा माँगा परन्तु महात्मा तो समाधिस्थ जड़वत् ही बैठे रहे। |