गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6क्रुद्ध एवं दुःखित हो उन औरतों ने महात्मा को बहुत गालियाँ दीं और मारा-पीटा, फिर भी महात्मा तो समाधिस्थ ही रहे। तब मायादेवी ने कहा, देखो! ‘जो ऐसे उजड्ड हैं कि पूजा अथवा मारपीट, गाली-गलौज सब कुछ को शान्त हो सम भाव से सह जाते हैं उन पर मेरा वश नहीं चलता।’ तात्पर्य कि एकमात्र भगवत्-शरणागति से ही माया का निस्तार सम्भव है। जो भगवत् शरण हो जाते हैं उन पर माया आक्रमण नहीं करती। ‘विलज्जमानया यस्यस्थातुमीक्षापथेऽमुया। जैसे सूर्य नारायण के सामने तमिस्त्रा रात्रि कदापि नहीं खड़ी हो सकती है वैसे ही भगवत्-दृष्टिपथ में माया भी कदापि खड़ी नहीं हो सकती। ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।’ [2] जीव मात्र भगवदंश है; इस सनातन-अंश जीव को जनन-मरणाविच्छेद-लक्षण संसृति में फँसा कर दुःख-परम्परा में फँसा देने वाली, भगवदंश का अपकार करने वाली अजा, माया सर्वेश्वर सर्वाधिष्ठान, प्रभु के समक्ष खड़ी होने में भय खाती है। ‘नानाविधैश्च नेवेद्यैर्द्रव्यैमें नाम्ब तोषणाम्। नाना प्रकार के नैवेद्य एवं द्रव्यादि से भगवत्-पूजा कर दीन-दुःखियों को सताने वाले की पूजा राख में दी गई आहुति की भाँति निष्फल है। परात्पर परब्रह्म प्रभु ही जीव मात्र में विद्यमान हैं। एतावता धातुमयी, पाषाणमयी, काष्ठमयी आदि विभिन्न भगवत्-प्रतिमा का पूजन करते हुए भी जीव मात्र में ही प्रभु-दर्शन करना सर्वोत्कृष्ट पूजन है। यही सर्वोत्कृष्ट भक्त का लक्षण है। जब तक जीव भगवदभिमुख नहीं होता तभी तक माया भी उसको सताती है: जैसे कोई घुड़सवार अपने घोड़े को कोड़ लगाकर उसको तेज दौड़ने के लिए विवश करता है वैसे ही जीव के कंधे पर सवार माया भी उसको त्रिगुणात्मिक दुःख-रज्जु रूप कोड़े से मार-मार कर उसको भगवदुन्मुखी ही बनाना चाहती है। एतावता जीव को दुःख होते हुए भी माया का उद्देश्य पवित्र है ऐसा जानकर प्रभु उसका हनन नहीं करते। जो भगवत् प्रपन्न होते हैं वे माया से तर जाते हैं। भक्तों के अहंकारादि दोषों को मिटाने के लिये भगवान् अपने प्रहास रूपी माया को संकोच कर लेते हैं; अर्थात् उनमें माया की प्रवृत्ति न होने पर कामादि दोष भी सम्भव नहीं होते; अतः माया-विलास का ही अन्त हो जाता है। |