गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6एक कथा है; वृषभानु-कुमार, राधारानी का एक क्रीड़ा शुक था। राधारानी के मुख-पद्म निःसृत कोई एक श्लोक शुक को कंठस्थ था। एक दिन उड़ते-उड़ते वह क्रीड़ा-शुक नन्दराय के अलिंद पर बैठ कर उस श्लोक को ही बोलने लगा। उस श्लोक को सुनकर मुग्ध हुए श्रीकृष्ण कहने लगे ‘महाप्राज्ञ पक्षिन् आगच्छ स्वागतन्ते।’ हे महाप्राज्ञ पक्षी आओ मेरे हाथ पर बैठ जाओ और वही श्लोक पुनः सुनाओ। वह शुक उड़ कर भगवान के हस्तारविन्द पर जा बैठा और उसी श्लोक का पाठ करने लगा। ‘दुरापजनवर्तिनी रतिरपत्रपा भूयसी इतने में ही राधा रानी की सखी उस क्रीड़ा-शुक को खोजती हुई वहीं पहुँच गयी और कहने लगी, ‘हे मधुमंगल हमारी सखी राधा रानी इस अपने शुक के बिना अत्यन्त उदास हो रही हैं। अतः आप कृपया इसे लौटा दें।’ भगवान् श्रीकृष्ण के सखा मधुमंगल ने उत्तर दिया ‘हे सखी! यदि यह तुम्हारा है, तुम्हारे बुलाने से तुम्हारे पास आ जाय तो तुम अवश्य ही ले जा सकती हो।’ उस सखी ने उत्तर दिया कि, ‘हे मधुमंगल! तुम्हारी यह शर्त असंगत है। बाँस की जड़ बाँसुरी भी तो तुम्हारे सखा के हाथ में पहुँच कर उनको छोड़ना नहीं चाहती; यह शुक तो चेतन है; यह क्योंकर तुम्हारे सखा के हस्तारविन्द को छोड़ पायेगा।’ तात्पर्य कि जब जड़ भी भगवान् के मनोहर स्वरूप से मोहित हो जाते हैं तो हम सहृदया योषिताओं की दशा तो निश्चय ही अकथ है। |