गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6अर्थात- अज्ञानी जन्तु, अनीश स्वयं अपने ही कर्मा कर्म के तत्-तत् फलों से अनभिज्ञ है। ईश्वर-प्रेरित ही वह अपने शुभाशुभ कर्म द्वारा स्वर्ग अथवा नरक गामी होता है। ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। अर्थात हे अर्जुन! ईश्वर ही यंत्री हैं, जीव-मात्र यंत्र है। जैसे यंत्र का परिचालन यंत्री के परतंत्र रहता है वैसे ही जीव रूप यंत्र की परिचालना भी ईश्वर रूप यंत्री के परतंत्र ही होती है। गोपांगनाएँ कह रही हैं हे सखे! आप सर्वान्तर्यामी, सर्वप्रेरक हैं तदपि विशेषतः हम व्रजांगनाओं के प्रेरक हैं। हमारी गति, स्थिति, प्रवृत्ति सब आप के परतंत्र हैं, आप द्वारा परिचालित हैं। हे सखे! आप सब के मनो का अपहरण कर लेते हैं; आप अतिशय मनोहर हैं। हम योषिताओं के मन को भी आपने ही बलात् अपनी ओर खींच लिया है। ‘दिवि भुवि च रसायां काः स्त्रियस्तद्दुरापाः। हे सखे! द्यू लोक, भूलोक, रसालोक आदि में कौन ऐसी सहृदया नारी है जो आप के इस अतुलित मनोहरता पर मुग्ध न हो जाय। आप का मनोरम माधुर्य ही ऐसा अद्भुत है जो बरबस हमको अपने में खींच लेता है। भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र के दिव्य श्री अंग की लोकोत्तर मधुरिमा, मनोहरता, सुन्दरता, अद्भुत चमत्कार पूर्ण दिव्य लावण्य के सन्निधान से जड़ दुमलतादि भी आकर्षित हो जाते हैं, फिर चेतन की तो कथा ही क्या? |