गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 237

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 6

अर्थात- अज्ञानी जन्तु, अनीश स्वयं अपने ही कर्मा कर्म के तत्-तत् फलों से अनभिज्ञ है। ईश्वर-प्रेरित ही वह अपने शुभाशुभ कर्म द्वारा स्वर्ग अथवा नरक गामी होता है।

‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढ़ामि मायया।।’[1]

अर्थात हे अर्जुन! ईश्वर ही यंत्री हैं, जीव-मात्र यंत्र है। जैसे यंत्र का परिचालन यंत्री के परतंत्र रहता है वैसे ही जीव रूप यंत्र की परिचालना भी ईश्वर रूप यंत्री के परतंत्र ही होती है। गोपांगनाएँ कह रही हैं हे सखे! आप सर्वान्तर्यामी, सर्वप्रेरक हैं तदपि विशेषतः हम व्रजांगनाओं के प्रेरक हैं। हमारी गति, स्थिति, प्रवृत्ति सब आप के परतंत्र हैं, आप द्वारा परिचालित हैं। हे सखे! आप सब के मनो का अपहरण कर लेते हैं; आप अतिशय मनोहर हैं। हम योषिताओं के मन को भी आपने ही बलात् अपनी ओर खींच लिया है।

‘दिवि भुवि च रसायां काः स्त्रियस्तद्दुरापाः।
कपटरुचिरहासभ्रूविजृम्भस्य याः स्युः।।’[2]

हे सखे! द्यू लोक, भूलोक, रसालोक आदि में कौन ऐसी सहृदया नारी है जो आप के इस अतुलित मनोहरता पर मुग्ध न हो जाय। आप का मनोरम माधुर्य ही ऐसा अद्भुत है जो बरबस हमको अपने में खींच लेता है।

‘यद्गोद्विजद्रुममृगा; पुलकान्यबिभ्रन्’[3]

भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र के दिव्य श्री अंग की लोकोत्तर मधुरिमा, मनोहरता, सुन्दरता, अद्भुत चमत्कार पूर्ण दिव्य लावण्य के सन्निधान से जड़ दुमलतादि भी आकर्षित हो जाते हैं, फिर चेतन की तो कथा ही क्या?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद् भ. गीता 18। 61
  2. श्री. भाग. 10। 47। 15
  3. श्री. भा. 10। 29। 40

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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