गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 200

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 5

‘नित्याव्यक्तोपि भगवानीक्ष्यते निजभक्तितः’ नित्य अव्यक्त भगवद्-स्वरूप भी भक्तियुक्त दृष्टि से ही गोचर है। प्राकृत-दृष्टि से भगवदीय दिव्य स्वरूप स्थिर ही नहीं हो पाता। भक्त-शिरोमणि अर्जुन को भी भगवदनुग्रहवशात् दिव्य चक्षु उपलब्ध होने पर ही भगवदीय दिव्यस्वरूप के दर्शन हुए। ‘दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्यमे योगमैश्वरम्।’[1] भक्तिरहित हो कौन भगवदीय दिव्य-स्वरूप का दर्शन कर पाता है?

नाहं वेदैर्न तपसा, न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।[2]

भगवान् श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘हे अर्जुन! उग्र तप, महान् यज्ञ एवं प्रचुर दान-कौशल से भी मेरे स्वरूप का दर्शन सम्भव नहीं।

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।[3]

अर्थात्, अनन्य अनुराग एवं निष्ठा की भित्ति पर ही प्राणी मेरे स्वरूप का दर्शन कर पाता है; इतना ही नहीं अपितु वह मुझमें सन्निविष्ट भी हो जाता है। अस्तु, भगवत्-स्वरूप सर्वव्याप्त होते हुए भी, उपयुक्त अधिष्ठान, भक्तियुक्त तत्-तत् अन्तःकरणों पर एककालावच्छेदेन प्रस्फुटित हो जाता है। उदाहरणतः वनवासानन्तर जब भगवान् राघवेन्द्र रामचन्द्र अयोध्या पधारे तो सम्पूर्ण अयोध्यावासी ही भगवद्-दर्शन के लिये अत्यन्त आतुर हो उठे; प्रत्येक के लिये भगवत्-सम्मिलन में एक क्षण का विलम्ब असह्य था; अतः

‘छन माहिं सबहिं मिले भगवाना। उमा मरमु यह काहुँ न जाना।।’[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 11। 8
  2. गीता 11। 53
  3. गीता 11। 54
  4. मानस, उत्तर कां. 5। 7

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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