गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 5‘नित्याव्यक्तोपि भगवानीक्ष्यते निजभक्तितः’ नित्य अव्यक्त भगवद्-स्वरूप भी भक्तियुक्त दृष्टि से ही गोचर है। प्राकृत-दृष्टि से भगवदीय दिव्य स्वरूप स्थिर ही नहीं हो पाता। भक्त-शिरोमणि अर्जुन को भी भगवदनुग्रहवशात् दिव्य चक्षु उपलब्ध होने पर ही भगवदीय दिव्यस्वरूप के दर्शन हुए। ‘दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्यमे योगमैश्वरम्।’[1] भक्तिरहित हो कौन भगवदीय दिव्य-स्वरूप का दर्शन कर पाता है? नाहं वेदैर्न तपसा, न दानेन न चेज्यया। भगवान् श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘हे अर्जुन! उग्र तप, महान् यज्ञ एवं प्रचुर दान-कौशल से भी मेरे स्वरूप का दर्शन सम्भव नहीं। भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। अर्थात्, अनन्य अनुराग एवं निष्ठा की भित्ति पर ही प्राणी मेरे स्वरूप का दर्शन कर पाता है; इतना ही नहीं अपितु वह मुझमें सन्निविष्ट भी हो जाता है। अस्तु, भगवत्-स्वरूप सर्वव्याप्त होते हुए भी, उपयुक्त अधिष्ठान, भक्तियुक्त तत्-तत् अन्तःकरणों पर एककालावच्छेदेन प्रस्फुटित हो जाता है। उदाहरणतः वनवासानन्तर जब भगवान् राघवेन्द्र रामचन्द्र अयोध्या पधारे तो सम्पूर्ण अयोध्यावासी ही भगवद्-दर्शन के लिये अत्यन्त आतुर हो उठे; प्रत्येक के लिये भगवत्-सम्मिलन में एक क्षण का विलम्ब असह्य था; अतः |