गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 5गोपांगनाओं के भक्तियुक्त चित्त में भी एककालावच्छेदेन भगवत्-श्रीकर का आविष्कार हुआ। अस्तु, असंख्यात गोपांगनाओं के सिर पर एककालावच्छेदेन ही श्रीकर-विन्यास हुआ। इस प्रयोजन को व्यक्त करने के हेतु ही ‘शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्’ जैसी उक्ति में सम्पूर्ण पद एकवचनात्मक है। गोपांगनाएँ प्रभु श्यामसुन्दर के प्रति ‘कान्त’ सम्बोधन का प्रयोग करती हैं। ‘कामादिसुखानां अन्तः पर्यवसानं यस्मिन् स कान्तः, सम्बुद्धौ’ ‘क’ पद सुखवाची है; सम्पूर्ण ‘क’ का, ब्रह्माण्डान्तर्गत सम्पूर्ण सुखों का जिसमें अन्तर्भाव हो वह अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक अखिलेश्वर प्रभु ही कामसंज्ञक है। अखण्ड भूमण्डल के यौवनसम्पन्न एवं धर्मनिष्ठ चक्रवर्ती राजाधिराज का सुख सम्पूर्ण मानव-सुखों में अत्यन्त विशिष्ट है तथापि यह विशिष्ट मानव-सुख भी गान्धर्व विद्या, संगीत-विद्याजन्य अद्वितीय सुख का लेशमात्र भी नहीं। ‘नाऽहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वै। अर्थात्, हे नारद! मैं न तो वैकुण्ठ में वास करता हूँ और न योगियों के हृदय में ही वास करता हूँ। मैं तो वहाँ वास करता हूँ जहाँ मेरे भक्त मेरा गान करते हैं। संसार में अनेक जन गान्धर्व-विद्या, गान-विद्या-विशारद होते हैं, ऐसे सौ मानव-गन्धर्वों का सम्मिलित सुख भी देव-गान्धर्व-सुख की तुलना में नगण है। देव-गान्धर्वों का समस्त सुख-पुन्ज आजानज देवताओं के सुख की तुलना में न्यून है; आजानज देवता, कर्म-देवता, श्रौत-कर्म-देवता, स्मार्त्त-कर्म-देवता, आदिकों का सुख भी क्रमशः परस्पर न्यूनाधिक है। श्रौत-कर्म के देवता इन्द्रादिकों का जिनके लिये ‘अग्नीषोमीयं पशुमालभते’ [2] अदि स्तुतियाँ की जाती हैं, सुख अत्यन्त विशद है। इस सुख से भी सौगुना अधिक सुख इन्द्र को है; इन्द्र, बृहस्पति, प्रजापति एवं ब्रह्मा का सुख भी क्रमशः एक-दूसरे से शतगुण प्रचुर है। |