गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 157

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 4

संसार भर के सम्पूर्ण कर्मों की परिसमाप्ति ज्ञान में ही होती है, ‘अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वमोशे’ आप ही सम्पूर्ण उपदेशों के महातात्पर्य हैं,

‘प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा।’[1]

आप ही सम्पूर्ण तनु-धारियों के परम-प्रेमास्पद बन्धु हैं;

‘गोपीनां तत्पतीनां च सर्वेषामेव देहिनाम्।
योऽन्तश्चरति सोऽध्यक्षः क्रीडनेनेह देहभाक्।।’[2]

आप ही गोपांगनाओं एवं उनके पतियों के भी तथा अन्यान्य सम्पूर्ण प्राणिमात्र के भी अध्यक्ष हैं, सबके द्रष्टा हैं, अतः आपकी उपासना से ही सम्पूर्ण उपासना सम्पन्न हो जाती है। अस्तु, गोपांगनाएँ कह रही हैं कि हे प्रभो! आप केवल व्रजेन्द्रनन्दन, श्रीकृष्णचन्द्र ही नहीं हैं अपितु ‘अखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्’ सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तरात्मा, द्रष्टा भी हैं; ‘न स्वान्तरवृत्तं बहु वक्तव्यं’ आप सर्वसाक्षी हैं अतः आपके प्रति अपने भावों को, आपके विप्रयोगजन्य अपने संताप को अभिव्यक्त करने की आवश्यकता ही नहीं; आप स्वयं ही हमारे त्रास को जानते हैं अतः हे प्रभो! कृपा करो, शीघ्र दर्शन दो।

वे अनुभव करती हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि ‘हे गोपांगनाओ! तुम लोगों में मद, अहंकार का प्रादुर्भाव हुआ एतावता तुम भक्त नहीं रहीं; तुम्हारे अहंकार के कारण ही मैं अन्तर्धान हो गया हूँ। भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति उत्तर देती हुई वे कह रही हैं; हे प्रभो! हम तो भक्त नहीं हैं परन्तु आप तो अपने परम भक्त विखनस ब्रह्मा की प्रार्थना से सात्वतों के, यादवों के कुल में ‘विश्वगुप्तये’ विश्व-रक्षा-हेतु अविर्भूत हुए हैं। विश्व के अन्तर्गत अभक्त, चेतनाचेतन, पुण्यापुण्य प्राणिमात्र आ जाते हैं एतावता आपको हमारा भी रक्षण करना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10। 29। 32
  2. श्रीमद्भा. 10। 33। 36

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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