गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 4‘नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप। अर्थात, निर्गुण, निराकार, निर्विकार, गुणात्मा, सर्वाधिष्ठान, अप्रमेय, सर्वसाक्षी, अनन्त ब्रह्माण्डनायक, परात्पर परब्रह्म प्राणिमात्र के कल्याण-हेतु ही अवतरित होते हैं। ‘कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च। अर्थात, जैसे कोई दीपक-बुद्धि से भी चिन्तामण की ओर अग्रसर हो तो भी उसको प्राप्ति चिन्तामणि की ही होगी वैसे ही काम, क्रोध, भय, स्नेह आदि किसी भाव से भगवान् को भजने वाले को भी परात्पर परब्रह्म को ही प्राप्ति होगी। अतः हे प्रभो! आप द्वारा हमारा संत्राण होना ही चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10। 29। 14
- ↑ श्रीमद्भा. 10। 33। 50
- ↑ ‘सात्वतां’ शब्द के भक्तगण तथा यदुवंशी ये दोनों ही अर्थ हैं। भागवत(1। 2)आदि में भक्त अर्थ है।(9। 24) आदि में यदुवंशी।