गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 3अर्थात, अध्यारोप एवं अपवाद के द्वारा निष्प्रपन्च परब्रह्म का ही प्रपन्चन वेद करते हैं। इस सिद्धान्त को जिसने जान लिया वही वेदविद् है, वही कर्म-उपासना एवं ज्ञानकाण्ड की यथार्थ सम्यक् व्यवस्था कर सकता है। संक्षेप-शारीरककार लिखते हैं - ‘वक्तारमासाद्य यमेव नित्या सरस्वती स्वार्थसमन्वितासीत्। अर्थात्, शंकराचार्यरूप वक्ता को पाकर वेद-लक्षणा-सरस्वती स्वार्थसमन्विता हुई। तात्पर्य कि शंकराचार्यजी द्वारा वेदों का यथार्थ अर्थ किया गया; कर्मकाण्ड का अवान्तर तात्पर्य तत् तत् देवता की आराधना एवं तज्जन्य फल-प्राप्ति तथा चित्त की एकाग्रता के द्वारा ज्ञानकाण्ड का प्रतिपाद्य निरावरण परब्रह्म में ही सबका तात्पर्य निर्धारित किया गया। अज्ञ, अल्पज्ञ अथवा बहुश्रत खल के लिए कदापि संभव नहीं। एतावता श्रुतियाँ प्रार्थना कर रही है। कि हे प्रभु! आपका साक्षात्कार ही विषरूप जड़ता, अज्ञता, अल्पज्ञता का अपनयन करने वाला है; आपके साक्षात्कार से ही हमारा प्रामाण्य व्यवस्थित रह सकता है अतः आप प्रत्यक्ष होकर विषरूप जड़ता से हमारी रक्षा करें। बहुश्रुत खल भी सर्वदा-सर्वत्र विपरीत-भाववश अनर्थ की ही कल्पना करता है। कहते हैं - ‘अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः। अर्थात, अज्ञ को अनायास समझाया जा सकता है, विशेषज्ञ को और सरलता से समझाया जा सकता है पर दुरभिमानी अल्पज्ञ को अथवा खल को ब्रह्मा भी सन्तुष्ट नहीं कर सकते। |