गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 151

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 3

अर्थात, अध्यारोप एवं अपवाद के द्वारा निष्प्रपन्च परब्रह्म का ही प्रपन्चन वेद करते हैं। इस सिद्धान्त को जिसने जान लिया वही वेदविद् है, वही कर्म-उपासना एवं ज्ञानकाण्ड की यथार्थ सम्यक् व्यवस्था कर सकता है। संक्षेप-शारीरककार लिखते हैं -

‘वक्तारमासाद्य यमेव नित्या सरस्वती स्वार्थसमन्वितासीत्।
निरस्तदुस्तर्ककलंकपंका नमामि तं शंकरमर्चिताङ्घ्रिम्।।’[1]

अर्थात्, शंकराचार्यरूप वक्ता को पाकर वेद-लक्षणा-सरस्वती स्वार्थसमन्विता हुई। तात्पर्य कि शंकराचार्यजी द्वारा वेदों का यथार्थ अर्थ किया गया; कर्मकाण्ड का अवान्तर तात्पर्य तत् तत् देवता की आराधना एवं तज्जन्य फल-प्राप्ति तथा चित्त की एकाग्रता के द्वारा ज्ञानकाण्ड का प्रतिपाद्य निरावरण परब्रह्म में ही सबका तात्पर्य निर्धारित किया गया। अज्ञ, अल्पज्ञ अथवा बहुश्रत खल के लिए कदापि संभव नहीं। एतावता श्रुतियाँ प्रार्थना कर रही है। कि हे प्रभु! आपका साक्षात्कार ही विषरूप जड़ता, अज्ञता, अल्पज्ञता का अपनयन करने वाला है; आपके साक्षात्कार से ही हमारा प्रामाण्य व्यवस्थित रह सकता है अतः आप प्रत्यक्ष होकर विषरूप जड़ता से हमारी रक्षा करें। बहुश्रुत खल भी सर्वदा-सर्वत्र विपरीत-भाववश अनर्थ की ही कल्पना करता है। कहते हैं -

‘अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रन्जयति।।’[2]

अर्थात, अज्ञ को अनायास समझाया जा सकता है, विशेषज्ञ को और सरलता से समझाया जा सकता है पर दुरभिमानी अल्पज्ञ को अथवा खल को ब्रह्मा भी सन्तुष्ट नहीं कर सकते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संक्षेप. 1। 15
  2. भर्तृजरि-नीतिशतक 2

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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