गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 3वल्लभाचार्यजी कहते हैं, श्रीमद्भागवत का श्लोक है - ‘स यैः स्पृष्टोऽभिदृष्टो वा संविष्टोऽनुगतोऽपि वा। कोशलास्ते ययुः स्थानं यत्र गच्छन्ति योगिनः।।’[1] अर्थात, ये श्रीराम वही हैं जिनके दर्शन, स्पर्श एवं अभिगमन मात्र से सभी कौशलवासी योगियों के उपयुग्त दिव्य-धाम को गए। राम एवं कृष्ण के विभिन्न कल्पावतारों में भी अवान्तर भेद मान्य है। ‘रामायण’ के राम पूर्णतम पुरुषोत्तम हैं। इसी तरह विभिन्न कल्प में प्रादुर्भूत कृष्ण में भी अवान्तर भेद हैं। तात्पर्य कि अपने उपास्य स्वरूप में, स्वधर्म एवं स्वकर्म में अनन्य-निष्ठा ही सिद्धि का मूलमन्त्र है यद्यपि मूलतः सम्पूर्ण ही वेदान्त-वेद्य परात्पर परब्रह्म-स्वरूप ही है। शिव-भक्त कहता है ‘विरहीव विभो प्रियामयं परिपश्यामि भवन्मयं जगत्’ हे प्रभु! जैसे विरही जगत् को प्रियामय देखता है वैसे ही मैं भी सम्पूर्ण जगत् में आपका ही दर्शन करूँ ‘न विद्यस्तत्तत्त्वम् वयमिह तु यत्त्वन्न भवसि’ हे प्रभो! आपसे भिन्न अन्य कुछ न देखूँ। ‘शरणं तरुणेन्दुशेखरः शरणं मे गिरिराज कन्यका। शरणं पुनरेव तावुभौ, शरणं नान्यदुपैमि दैवतम्’ तरुणेन्दुशेखर भगवान् शिव ही मुझे शरण दें; गिरिराज-कन्या राजराजेश्वरी ही मुझे शरण दें। |