गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2‘अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः। अर्थात सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वतन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति एवं आश्रय इनमें भी दशम की विशुद्धि के लिए ही शेष नौ का कीर्तन किया गया है। सम्पूर्ण शास्त्र ही भगवान के वाङ्मय-विग्रह हैं। श्रीमद्भागवत भगवान का सविशेष-निर्विशेष सम्मिलित-स्वरूप है; उसमें सर्ग-विसर्गादि दसों तत्त्वों का सांगोपांग वर्णन है किन्तु दशम-स्कन्ध में केवल आश्रय नामक दशम तत्त्व का ही वर्णन है। ‘दशमे दशमो हरिः।’ जिस प्रकार एक सुधासिंधु में नाना प्रकार के तरंगों का प्रादुर्भाव होता है उसी प्रकार दशम-स्कन्ध में जितनी लीलाओं का प्रादुर्भाव हुआ है वे सब भगवान की नित्य-लीला की ही अभिव्यक्ति मात्र हैं, अतः भगवल्लीला-सम्बन्धी जितने विषय हैं वे सब भगवद्रूप हैं। मधुसूदनजी कहते हैं, ‘नीलं महो धावति।’ अर्थात् महान्-नील-तेज यमुना-पुलिन-पर दौड़ रहा है। तात्पर्य कि जिसके तेज से दीप्त होकर सूर्य प्रकाशवान् हो रहा है, जो अनन्त ज्योति है ‘ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः।’ ज्योतियों का भी ज्योति है, वही परात्पर परब्रह्म ‘नीलं महः’ कृष्णरूप में यमुना-पुलिन पर क्रीड़ा कर रहा है। शंकराचार्य कहते हैं- ‘ब्रह्माण्डानि बहूनि पंकजभवान् प्रत्यण्डमत्यद्भुतान् अविकृत सच्चिन्मयी नीलिमा ही कृष्ण है। ‘मूर्तित्रयात् पृथगस्तु’ जो ब्रह्मा-विष्णु-महेश, त्रिमूर्ति से भिन्न हैं, जिसने ब्रह्मा को भी अपरिगणित ब्रह्माण्ड दिखाए; ब्रह्माजी स्तुति कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 2।10।1