गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2‘क्वाऽहं तमोमहदहंखचराग्निवार्भूसंवेष्टिताण्डघटसप्तवितस्तिकायः। अर्थात्, कहाँ मैं साढ़े तीन हाथ ब्रह्माण्ड घट की महिमा में अभिमान करने वाला और कहाँ आप जिसके रोम-रोम में कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड व्याप्त हैं। जैसे वातायन से आती हुई सूर्य-रश्मि के अन्तर्गत अत्यन्त सूक्ष्म रेणु परिलक्षित होती है वैसे ही आपके प्रत्येक रोमकूप में परमाणु-तुल्य अनन्त ब्रह्माण्ड परिव्याप्त है; प्रत्येक ब्रह्माण्ड अपने परिमाण से ‘सप्त-वितस्ति-काय’ साढे़ तीन हाथ है; प्रत्येक ब्रह्माण्ड अष्टावरण-समावृत है। प्रकृति-तत्त्व, महत्-तत्त्व, अहं, ख-आकाश, चर-वायु, तेज-अग्नि, जल एवं भू-पृथ्वी ही अष्टावरण हैं। कहीं-कहीं सप्तावरण भी मान्य हैं; सप्तावरण को मानने वाले प्रकृति-तत्त्व को आवरण के अन्तर्गत नहीं मानते। ‘रामचरित-मानस’ में काकभुशुण्डिजी जहाँ-जहाँ गए वहीं-वहीं उनको राघवेन्द्र रामचन्द्र की भुजा पीछा करती हुई दीखी। प्रत्येक ब्रह्माण्ड अष्टावरण समावृत है; प्रत्येक ब्रह्माण्डान्तर्गत प्रत्येक वस्तु अष्टावरण-समावृत है; इस प्रकार के अपरिगणित ब्रह्माण्ड का परिभ्रमण आपके एक-एक रोम में हो रहा है। ‘देखरावा मातहि निजहि अद्भुत रूप अखंड। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा विशिष्ट होते हैं; किसी ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा चतुर्मुख हैं तो अन्य ब्रह्माण्ड में अष्टमुख, द्वादशमुख, षोडशमुख भी हैं। पुराणों में एक रोचक कथा है; किसी ब्रह्मा को वैराग्य हो गया अतः उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के यहाँ अपना मुक्ति-नामा पेश कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने उनको समझाया-बुझाया, परन्तु ब्रह्मा ने उनकी एक भी बात न मानी और अपना त्यागपत्र देकर आ गये। लौटते हुए रास्ते में ब्रह्माजी ने देखा कि असंख्यात ऊँटों की कतार चली आ रही है; उत्सुक होकर ब्रह्मा उन लोगों से पूछताछ करने लगे; मालूम हुआ कि प्रत्येक ऊँट पर दो-दो पेटियाँ हैं; प्रत्येक पेटी में दस-दस ब्रह्मा हैं जो भगवान श्रीकृष्ण के यहाँ भेजे जा रहे हैं; उनको जो पसन्द होगा उसको वे रख लेंगे, शेष लौट आयेंगे। तो ब्रह्माजी स्तम्भित हो गए और कहने लगे, ‘भाई, तुम लौट जाओ; मैं ही त्याग-पत्र देकर आया था परन्तु अब मैं अपने कार्य-भार को पुनः सँभाल लेता हूँ।’ |