गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 253

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

बारहवाँ अध्याय

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सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो: ।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: सङ्गविवर्जित: ॥18॥

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी संतुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेत:स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर: ॥19॥

जो शत्रु और मित्र में तथा मान-अपमान में सम है और शीत-उष्ण (शरीर की अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुख-दुःख (मन-बुद्धि की अनुकूलता-प्रतिकूलता)- में सम है एवं आसक्ति रहित है, और जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील, जिस किसी प्रकार से भी (शरीर का निर्वाह होने- न-होने में) सन्तुष्ट, रहने के स्थान तथा शरीर में ममता-आसक्ति से रहित और स्थिर बुद्धिवाला है, वह भक्तिमान मनुष्य मुझे प्रिय है।

व्याख्या- इन दो श्लोकों में भगवान ने वे ही स्थल दिये हैं, जहाँ समता होने में कठिनता आती है। यदि इनमें समता हो जाय तो अन्य जगह समता होने में कठिनता नहीं प्रतीत होगी। अपने पर कोई असर न पड़ना ही समता है।

यद्यपि भक्त की दृष्टि में भगवान के सिवाय दूसरी सत्ता होती ही नहीं, तथापि दूसरे लोगों की दृष्टि में वह शत्रु और मित्र में समभाव वाला दीखता है। शत्रुता-मित्रता का ज्ञान होने पर भी वह सम रहता है। भक्त सब प्रकार की अनुकूलता-प्रतिकूलता में सम रहता है। उसका न तो अनुकूलता में राग होता है, न प्रतिकूलता में द्वेष होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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