विषय सूची
गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
बारहवाँ अध्याय
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो: । व्याख्या- इन दो श्लोकों में भगवान ने वे ही स्थल दिये हैं, जहाँ समता होने में कठिनता आती है। यदि इनमें समता हो जाय तो अन्य जगह समता होने में कठिनता नहीं प्रतीत होगी। अपने पर कोई असर न पड़ना ही समता है। यद्यपि भक्त की दृष्टि में भगवान के सिवाय दूसरी सत्ता होती ही नहीं, तथापि दूसरे लोगों की दृष्टि में वह शत्रु और मित्र में समभाव वाला दीखता है। शत्रुता-मित्रता का ज्ञान होने पर भी वह सम रहता है। भक्त सब प्रकार की अनुकूलता-प्रतिकूलता में सम रहता है। उसका न तो अनुकूलता में राग होता है, न प्रतिकूलता में द्वेष होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज