गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 245

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

बारहवाँ अध्याय

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ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परा: ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासने ॥6॥

परन्तु जो सम्पूर्ण कर्मों को मेरे अर्पण करके और मेरे परायण होकर अनन्ययोग (सम्बन्ध)- से मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं।

व्याख्या- जैसे ज्ञानयोगी क्रियाओं को प्रकृति के द्वारा होने वाली समझ कर तथा अपने को उनसे सर्वथा असंग अनुभव करके कर्मबन्ध से मुक्त हो जाता है, ऐसे ही भक्तियोगी अपनी क्रियाओं को भगवान् के अर्पण करके कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है।

‘मैं केवल भगवान् का ही हूँ, और किसी का नहीं हूँ तथा केवल भगवान ही मेरे अपने हैं, और कोई भी मेरा अपना नहीं है’- ऐसा मानना ही अनन्ययोग से भगवान की उपासना करना है।

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥7॥

हे पार्थ! मुझ में आविष्ट चित्तवाले उन भक्तों का मैं मृत्युरूप संसार-समुद्र से शीघ्र ही उद्धार करने वाला बन जाता हूँ।

व्याख्या- छठे अध्याय के पाँचवें श्लोक में भगवान ने सामान्य साधकों के लिये अपने द्वारा अपना उद्धार करने की बात कही थी-‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ और यहाँ कहते हैं कि भक्तों का उद्धार मैं करता हूँ। इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक साधक आरम्भ में स्वयं ही साधन में लगता है। परन्तु जो साधक भगवान के आश्रित होता है, उसका उद्धार भगवान करते हैं। वह तो अपने उद्धार की चिन्ता न करने केवल भगवान के भजन में ही लगा रहता है। उसका साधन और साध्य भगवान ही होते हैं। परन्तु ज्ञानमार्ग में चलने वाला साधक अपना उद्धार स्वयं करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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