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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
ग्यारहवाँ अध्याय
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । व्याख्या- वेदाध्ययन, तप, दान, यज्ञ आदि कितनी ही महान क्रिया न हो, उससे भगवान को प्राप्त नहीं किया जा सकता। उन्हें तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। अनन्य भक्ति है- केवल भगवान का ही आश्रय, सहारा हो और अपने बल का किंचिन्मात्र भी आश्रय न हो। ज्ञानमार्ग में तो केवल जानना और प्रवेश करना- ये दो होते हैं[1], पर भक्ति मार्ग में जानना, देखना और प्रवेश करना- ये तीनों होते हैं। भक्ति से भगवान के दर्शन भी हो सकते हैं- यह भक्ति की विशेषता है। भक्ति से समग्र की प्राप्ति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 18।55)
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