गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 240

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

ग्यारहवाँ अध्याय

Prev.png

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातु द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥54॥

परन्तु हे शत्रुतापन अर्जुन! इस प्रकार (चतुर्भुज रूप वाला) मैं केवल अनन्य भक्ति से ही तत्त्व से जानने में और (साकार रूप से) देखनें में तथा प्रवेश (प्राप्त) करने में शक्य हूँ।

व्याख्या- वेदाध्ययन, तप, दान, यज्ञ आदि कितनी ही महान क्रिया न हो, उससे भगवान को प्राप्त नहीं किया जा सकता। उन्हें तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। अनन्य भक्ति है- केवल भगवान का ही आश्रय, सहारा हो और अपने बल का किंचिन्मात्र भी आश्रय न हो।

ज्ञानमार्ग में तो केवल जानना और प्रवेश करना- ये दो होते हैं[1], पर भक्ति मार्ग में जानना, देखना और प्रवेश करना- ये तीनों होते हैं। भक्ति से भगवान के दर्शन भी हो सकते हैं- यह भक्ति की विशेषता है। भक्ति से समग्र की प्राप्ति होती है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 18।55)

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः