गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 226

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

ग्यारहवाँ अध्याय

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यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगा: समुद्रमेवाभिमुखा द्रविन्ति ।
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥28॥

जैसे नदियों के बहुत- से जल के प्रवाह स्वाभाविक ही समुद्र के सम्मुख दौड़ते हैं, ऐसे ही वे संसार के महान शूरवीर आप के सब तरफ से देदीप्यमान मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगा: ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगा: ॥29॥

जैसे पतंगे (मोहवश) अपना नाश करने के लिये बड़े वेग से दौड़ते हुए प्रज्वलित अग्नि में प्रविष्ट होते हैं, ऐसे ही ये सब लोग भी (मोहवश) अपना नाश करने के लिये बड़े वेग से दौड़ते हुए आपके मुखों में प्रविष्ट हो रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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