गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 212

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दसवाँ अध्याय

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अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥42॥

अथवा हे अर्जुन! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है, जबकि मैं अपने किसी एक अंश से इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हूँ अर्थात अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे किसी एक अंश में हैं।

व्याख्या- भगवान अपनी तरफ दृष्टि कराते हैं कि अनन्त ब्रह्माण्डों में सब कुछ मैं ही तो हूँ! मेरी तरफ देखने से फिर कोई भी विभूति बाकी नहीं रहेगी। जब सम्पूर्ण विभूतियों का आधार, आश्रय, प्रकाशक, बीज (मूल कारण) मैं तेरे सामने बैठा हूँ, तो फिर विभूतियों का चिन्तन करने की क्या जरूरत?

ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूति योग ो नाम दशमोऽध्यायः।।10।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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