गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
दसवाँ अध्याय
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा । व्याख्या- संसार की सत्ता, महत्ता और सम्बन्ध ही मनुष्य को बाँधने वाला है। इसलिये पहले कही गयी विभूतियों के सिवाय भी साधक को स्वतः जिस-जिसमें व्यक्तिगत आकर्षण दीखता हो, वहाँ-वहाँ वह भगवान की ही विशेषता देखे। इससे वहाँ उसकी भोगबुद्धि न होकर भगवद्बुद्धि हो जायगी तो उसके अन्तःकरण में भगवान की सत्ता, महत्ता और उनसे सम्बन्ध हो जायगा। मनुष्य जो भी विशेषता आती है, वह सब भगवान से ही आती है। अगर भगवान में विशेषता न होती तो वह मनुष्य में कैसे आती? जो वस्तु अंशी में नहीं है, वह अंश में कैसे आ सकती है? जो विशेषता बीज में नहीं है, वह वृक्ष में कैसे आयेगी? उन्हीं भगवान की कवित्व-शक्ति कवि में आती है, उन्हीं की वक्तृत्व-शक्ति वक्ता में आती है; उन्हीं की लेखन-शक्ति लेखक में आती है, उन्हीं की दातृत्व-शक्ति दाता में आती है। जिनसे मुक्ति, ज्ञान, प्रेम आदि मिले हैं, उनकी तरफ दृष्टि न जाने से ही ऐसा दीखता है कि मुक्ति मेरी है, ज्ञान मेरा है, प्रेम मेरा है। यह तो देने वाले भगवान की विशेषता है कि सब कुछ देकर भी वे अपने को प्रकट नहीं करते, जिससे लेने वाले को वह वस्तु अपनी ही मालूम देती है। मनुष्य से यह बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तु को तो अपनी मान लेता है, पर जहाँ से वह मिली है, उसको अपना नहीं मानता! परमात्मा सम्पूर्ण शक्तियों, कलाओं, विद्याओं आदि के विलक्षण भण्डार हैं। शक्ति जड़ प्रकृति में नहीं रह सकती, प्रत्युत चिन्मय परमात्मतत्त्व में ही रह सकती है। जिस ज्ञान से क्रिया हो रही है, वह ज्ञान जड़ में कैसे रह सकता है? अगर ऐसा मानें कि सब शक्तियाँ प्रकृति में ही हैं, तो भी यह मानना पड़ेगा कि उन शक्तियों के प्राकट्य और उपयोग (सृष्टि-रचना) आदि करने की योग्यता प्रकृति में नहीं है। जैसे, कम्प्यूटर जड़ होते हुए भी अनेक चमत्कारिक कार्य करता है, परन्तु चेतन (मनुष्य) के द्वारा निर्मित, शिक्षित तथा संचालित हुए बिना वह कार्य नहीं कर सकता। कम्प्यूटर स्वतःसिद्ध नहीं है, प्रत्युत कृत्रिम (बनाया हुआ) है; परन्तु परमात्मा स्वतःसिद्ध हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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