गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 21

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥8॥

कारण कि पृथ्वी पर धन-धान्यसमृद्ध और शत्रुरहित राज्य तथा (स्वर्ग में) देवताओं का आधिपत्य मिल जाय तो भी इन्द्रियों को सुखाने वाला मेरा जो शोक है, वह दूर हो जाय-ऐसा मैं नहीं देखता हूँ।

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परंतप ।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥9॥

संजय बोले- हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र! ऐसा कहकर निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी भगवान गोविन्द से ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ ऐसा साफ-साफ कहकर चुप हो गये।

तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच: ॥10॥

हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र! दोनों सेनाओं के मध्य भाग में विषाद करते हुए उस अर्जुन के प्रति हँसते हुए से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जाने वाले) वचन बोले।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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