गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
नवाँ अध्याय
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् । व्याख्या- भगवान से सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही प्रकृति चराचर सहित सम्पूर्ण प्राणियों की रचना करती है। तात्पर्य है कि सब क्रियाएँ प्रकृति में ही होती हैं, भगवान में नहीं। प्रकृति में कितना ही परिवर्तन हो जाय, परमात्मा वैसे-के-वैसे ही रहते हैं। इसी प्रकार भगवान का अंश जीव भी सदा निर्लिप्त, असंग रहता है। प्रकृति तो परमात्मा के अधीन रह कर सृष्टि की रचना करती है, पर जीव प्रकृति के अधीन होकर जन्म-मरण के चक्र में घूमता है। तात्पर्य है कि परमात्मा तो स्वतन्त्र हैं, पर उनका अंश जीवात्मा सुख की इच्छा से परतन्त्र हो जाता है। अवजानन्ति मां मूढा मानुषी तनुमाश्रितम् । व्याख्या- भगवान से बड़ा कोई ईश्वर नहीं है। वे सर्वोपरि हैं। परन्तु अज्ञानी मनुष्य उन्हें स्वरूप से नहीं जानते। वे अलौकिक भगवान् को भी अपनी तरह लौकिक मानकर उनकी अवहेलना करते हैं और नाशवान शरीर-संसार की ही सत्ता मानकर भोग तथा संग्रह में लगे रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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