गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
आठवाँ अध्याय
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम् । व्याख्या- वास्तव में परमात्मतत्त्व वर्णनातीत है। अव्यक्त, अक्षर, परमगति आदि नाम उस तत्त्व का संकेत मात्र करते है; क्योंकि वह अव्यक्त-व्यक्त, अक्षर-क्षर, गति-स्थिति आदि से रहित निरपेक्ष तत्त्व है। उसे प्राप्त होने पर जीव लौटकर संसार में नहीं आता। कारण कि जीव उस परमात्मतत्त्व का सनातन अंश होने से उससे अलग नहीं है। संसार में तो वह भूल से अपने को स्थित मानता है। वास्तव में शरीर ही संसार में स्थित है, स्वयं नहीं। पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया । व्याख्या- ज्ञानमार्ग में तो ज्ञानी पुरुष संसार से छूट जाता है, मुक्त हो जाता है और अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। परन्तु भक्ति मार्ग में संसार से मुक्त होने के साथ-साथ भक्त को भगवान की तथा उनके प्रेम की भी प्राप्ति हो जाती है। अतः कर्मयोग तथा ज्ञानयोग तो साधन हैं और भक्तियोग साध्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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