गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 168

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

आठवाँ अध्याय

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भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥19॥

हे पार्थ! वही यह प्राणि-समुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृति के परवश हुआ ब्रह्मा के दिन के समय उत्पन्न होता है और ब्रह्मा की रात्रि के समय लीन होता है।

व्याख्या- बदलने वाले शरीर-संसार का विभाग अलग है और न बदलने वाले आत्मा- परमात्मा का विभाग अलग है। शरीर-संसार तो बार-बार उत्पन्न होते और नष्ट होते हैं, पर आत्मा-परमात्मा वे-के-वे ही रहते हैं। कितने ही प्रलय-महाप्रलय और सर्ग-महासर्ग क्यों न हो जायँ, जीवात्मा स्वयं वही-का-वही रहता है। इसलिये देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, अवस्था, परिस्थिति आदि के अभाव का अनुभव सबके होता है, पर स्वयं के अभाव का अनुभव कभी किसी को नहीं होता। परन्तु शरीर को मैं, मेरा तथा मेरे लिये मान लेने के कारण शरीर के परिवर्तन को जीवात्मा अपना परिवर्तन मान लेता है और बार-बार जन्मता-मरता रहता है।

जैसे रेलगाड़ी चढ़ने से मनुष्य रेलगाड़ी के परवश हो जाता है, जहाँ रेलगाड़ी जायगी, वहाँ उसे जाना ही पड़ता है, ऐसे ही शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़ने से मनुष्य प्रकृति के परवश हो जाता है और उसे जन्म-मरण के चक्र में जाना ही पड़ता है।

परस्तस्मात्तु भावोऽन्यो-ऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन: ।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥20॥
परन्तु उस अव्यक्त (ब्रह्मा के सूक्ष्मशरीर) से अन्य (विलक्षण) अनादि अत्यन्त श्रेष्ठ भाव रूप जो अव्यक्त (ईश्वर) है, वह सम्पूर्ण प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।

व्याख्या- ब्रह्माजी के सूक्ष्म शरीर से भी श्रेष्ठ कारण शरीर (मूल प्रकृति) है और उससे भी श्रेष्ट परमात्मा हैं। परमात्मा के समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर उनसे श्रेष्ठ कोई हो ही कैसे सकता है[1]। असंख्य ब्रह्माजी उत्पन्न हो-होकर लीन हो गये, पर परमात्मा वैसे-के-वैसे ही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 11।43)

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