गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
छठा अध्याय
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित: । व्याख्या- ध्यान योग का अधिकारी वह है, जो अपने सुखभोग के लिये विभिन्न वस्तुओं का संग्रह नहीं करता, जिसके मन में भोगों की कामना नहीं है और जिसका अन्तःकरण तथा शरीर उसके वश में है। तात्पर्य है कि ध्यानयोग के साधक का उद्देश्य केवल परमात्मा को प्राप्त करने का हो, लौकिक सिद्धियों को प्राप्त करने का नहीं। पूर्वपक्ष- युद्ध के समय में अर्जुन को ध्यानयोग का उपदेश देने का क्या औचित्य है? उत्तरपक्ष- अर्जुन पाप से डरते थे, युद्ध से नहीं। उन्हें युद्ध से अधिक अपने कल्याण (श्रेय) की चिन्ता थी[1]। इसलिये कल्याण के जितने मुख्य साधन हैं, उन सबका भगवान गीता में वर्णन करते हैं। इसी कारण गीता मानव मात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन: । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 2।7, 3।2, 5।1)
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