गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
छठा अध्याय
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय: । व्याख्या- जिन से व्यवहार में एकता नहीं करनी चाहिये और एकता कर भी नहीं सकते, उन मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण में और सुहृद, मि, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य, बन्धु, साधु तथा पापी व्यक्तियों में भी कर्मयोगी महापुरुष की समबुद्धि रहती है। तात्पर्य है कि उसकी दृष्टि सब प्राणी-पदार्थों में समरूप से परिपूर्ण परमात्मतत्त्व पर ही रहती है। जैसे सोने से बने गहनों को देखें तो उन में बहुत अन्तर दीखता है, पर सोने को देखें तो कोई अन्तर नहीं, एक सोना-ही-सोना है। इसी प्रकार सांसारिक प्राणी पदार्थों को देखें तो उनमें बहुत बड़ा अन्तर है, पर तत्त्व से देखें तो एक परमात्मा-ही-परमात्मा हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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