गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 112

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

पाँचवाँ अध्याय

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विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: ॥18॥

ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं।

व्याख्या- बेसमझ लोगों के द्वारा यह श्लोक प्रायः सम-व्यवहार के उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया जाता है। परन्तु इस श्लोक में ‘समवर्तिनः’ न कह कर ‘समदर्शिनः’ कहा गया है, जिसका अर्थ है- समदृष्टि, न कि सम-व्यवहार। यदि स्थूलदृष्टि से भी देखें तो ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी और कुत्ते के प्रति सम-व्यवहार असम्भव है। इनमें विषमता अनिवार्य है। जैसे, पूजन विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण का ही हो सकता है, न कि चाण्डाल का; दूध गाय का ही पीया जाता है, न कि कुतिया का; सवारी हाथी पर ही की जा सकती है, न कि कुत्ते पर। जैसे शरीर के प्रत्येक अंग के व्यवहार में विषमता अनिवार्य है, पर सुख-दुःख में समता होती है अर्थात शरीर के किसी भी अंग का सुख हमारा सुख होता है और दुःख हमारा दुःख। हमें किसी भी अंग की पीड़ा सह्य नहीं होती। ऐसे ही प्राणियों से विषम (यथायोग्य) व्यवहार करते हुए भी उनके सुख-दुःख में समभाव होना चाहिये।

इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्मा तस्माद् ब्रह्माणि ते स्थिता: ॥19॥

जिनका अन्तःकरण समता में स्थित है, उन्होंने इस जीवित-अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार को जीत लिया है अर्थात वे जीवन्मुक्त हो गये हैं; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।

व्याख्या- परमात्मतत्त्व में स्थित हुए महापुरुष की पहचान है- बुद्धि में समता आना अर्थात बुद्धि में राग-द्वेष हर्ष-शोक आदि विकार न होना। जिसकी बुद्धि समता में स्थित हो गयी है, उसे जीवन्मुक्त समझना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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