गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 111

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

पाँचवाँ अध्याय

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ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन: ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥16॥

परन्तु जिन्होंने अपने जिस ज्ञान के द्वारा उस अज्ञान का नाश कर दिया है, उनका वह ज्ञान सूर्य की तरह परमतत्त्व की परमात्मा को प्रकाशित कर देता है।

व्याख्या- अपने विवेक को महत्त्व देने से अज्ञान का नाश हो जाता है। अज्ञान का नाश होन पर वह विवेक ही तत्त्वज्ञान में परिणत हो जाता है।

अज्ञान का नाश विवेक को महत्त्व देने से होता है, अभ्यास से नहीं। अभ्यास करने से जड़ता के साथ सम्बन्ध बना रहता है; क्योंकि जड़ता (शरीरादि) की सहायता लिये बिना अभ्यास होता ही नहीं। तत्त्वज्ञान का अनुभव जड़ता के द्वारा नहीं होता, प्रत्युत जड़ता के त्याग से होता है।

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा: ॥17॥

जिनका मन तदाकार हो रहा है, जिनकी बुद्धि तदाकार हो रही है, जिनकी स्थिति परमात्मतत्त्व में है, ऐसे परमात्मपरायण साधक ज्ञान के द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्ति (परमगति) को प्राप्त होते हैं।

व्याख्या- जहाँ मन-बुद्धि लगते हैं, वहाँ स्वयं भी लग जाता है-यह जीव का स्वभाव है। अतः मन-बुद्धि परमात्मा में लगने पर स्वयं भी परमात्मा में लग जाता है[1]। स्वयं परमात्मा लगने पर अहम (चिज्जड़ग्रन्थि) मिट जाता है। अहम मिटने पर सभी विकार मिट जाते हैं; क्योंकि सभी विकार, पाप, ताप अहम् पर ही टिके हुए हैं। अहम मिटने पर साधक साधन में और साधन साध्य में विलीन हो जाता है। फिर एक परमात्मा के सिवाय अन्य कोई सत्ता नहीं रहती। यही अपुनरावृत्ति को प्राप्त होना है। कारण कि जो परमात्मतत्त्व सब देश, काल आदि में परिपूर्ण है, उसे प्राप्त होने पर पुनरावृत्ति का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 12।8)

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