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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
प्रथमं शतकम्
श्री राधा तथा श्री मुरली मनोहर के चरणारविन्दों का निरन्तर ध्यान-स्मरण करता हुआ, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की चरण-रज में आत्म-समर्पण कर एवं कल्याण-गुण सागर भक्त शिरोमणि वृन्द के चरण-कमलों में अतिशय आदर सहित बारम्बार प्रणाम कर आनन्दपूर्वक मैं श्री वृन्दावन के दिव्य (चिन्मय) वैभव की स्तुति करने में प्रवृत्त होता हूँ।।1।।
जिस श्रीवृन्दावन के महिमामृत-समुद्र के पार जाने में स्वयं ईश्वर भी असमर्थ हैं - फिर इस काम के लिये और कौन साहस कर सकता है? किन्तु अत्यन्त प्रीति पूर्वक मैं इस समुद्र में यत्किञ्चित् अवगाहन कर भी धन्य-धन्य हो जाऊँगा- इसलिये ही मेरी यह चेष्टा है।।2।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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