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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पष्ठ शतकम्
सबकी सदा स्तुति करते हुए, इतस्ततः सबको सन्तुष्ट करते हुए, सबके लिए सुख-सम्पदा की सम्यक् कामना करते हुए सर्वत्र सम-भाव रखते हुए, सबके सामने विनयपूर्वक मस्तक झुकाते हुए, सर्वापेक्षा से रहित होकर मैं स्वयं इस पवित्र श्रीवृन्दावन में वास करुँगा।।1।।
कामिनी-कांचनमय महायोहान्ध करने वाली माया सब स्वार्थों का निराकरण कर देती है।, अपने गुण मंगल को दूर कर देती है, बुद्धिमान पुरुष की भी वञ्चना करती है। इस माया की सुन्दर रमणीयता को भी अति मिथ्या जान कर दूर से ही इसका त्याग करते हुए श्रीवृन्दावन का सेवन करना कर्तव्य है।।2।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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