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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
हे प्रिय सखी! मेरा वृत्तांत और कुछ मत पूछो, हाय मेरा भाग्य ही ऐसा है! हाय! मैं किसी को या तुम्हें अपने अनन्त विलासादि की कथा क्या कहूँ? श्यामसुन्दर ने मेरा केवल मात्र हाथ पकड़ते ही ,मैं कहाँ हूँ? मैं कौन हूँ? अथवा यह हाथ कैसा है? क्या हुआ? मुझे कुछ भी तो स्मरण नहीं है।।98।।
अहो! तुम्हारा सखा दिव्य फूलों से मेरी वेणी-गुन्थन करता है, सीमान्त देश में सिन्दूर भरता है, नेत्रों मे काजल की रेखा अंकन करता है, दिव्य दिव्य वस्त्र धारण करता है एवं पुनः पुनः ताम्बूल खिलाता है। इस प्रकार रति-परायण होकर वह मुझे गोद से फिर शय्या पर भी नहीं उतारता है।।99।।
श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु दूर चले गये हैं, महा कलियुग निकट आ गया है, श्रीवृन्दावन की प्रीति के बिना कृष्ण-प्रेम कैसे प्राप्त होगा?।।100।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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