विषय सूची
श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पष्ठ शतकम्
हे श्रीवृन्दावन! में अति हीन होते हुए भी किंतु लक्ष्मी नारायणादिकों को जो दुर्लभ है- उस अद्भुत पद की आकांक्षा करता हूँ, मैं नित्य ही आपके प्रति अपराध कराता हूँ एवं अणुमात्र भी आपके रस प्लावित नहीं हो पाता, और धर्मादि को विसमृत करने वाले ले कुविषयों को भी त्याग नहीं कर पाता लज्ज-भय-शोक-मोह में ग्रसित हूँ- अतएवं मेरी आप ही रक्षा करें।।3।।
हे श्रीवृन्दावन! काम, कैसी कैसी असह मर्म-पीड़ा नित्य देता है, क्रोध, कितना अन्धा कर देता है, लोभ भी अत्यन्त क्षुभित करता है और दम्भ, असूया, मद, पिशुनता, मात्सर्य आदि से लिप्त मैं स्वार्थ से भ्रष्ट हुआ अब आपकी ही शरण लेता हूँ।।4।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज