विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 5रास की दिव्यता का ध्यानरास की दिव्यता अच्छा आओ, अपने मन को भगवान के धाम में ले चलें। भक्ति सिद्धांत में जिसको ध्यान बोलते हैं, यह और सिद्धांतों से अलग तरह का होता है। यह नहीं समझना कि सब सिद्धांतों में ध्यान का एक ही अर्थ होता है। जैसा सिद्धांत उसके अनुसार ध्यान। बौद्ध कहते हैं कि संसार की किसी भी वस्तु में चित्त को एकाग्र मत होने दो; क्योंकि सब शून्य है। बौद्धों में भी दो विभाग हैं- ज्ञानी बौद्ध और उपासक बौद्ध आदि बुद्ध ज्ञानी बुद्ध हुए हैं। ज्ञानी बौद्ध जो ज्ञानमार्ग में चलते हैं, वे कहीं भी ध्यान नहीं लगाते। जो उपासक बौद्ध होंगे वे आदि बुद्ध का ध्यान करते हैं, जो बुद्ध की मूर्ति बनी रहती है न, उनमें ये अमिताभ हैं, ये अवलोकितेश्वर हैं, ये गौतम हैं- ऐसे बुद्धों का बहुत भेद होता है। जैन मत में ध्यान का अभिप्राय दूसरा ही होता है- वहाँ भी यही कहते हैं कि शून्य की तरफ देखो-देखो कि वहाँ क्या मालूम पड़ता है? उनके यहाँ स्थान– विशेष में ध्यान हा है- जैसे नाभि है, नाभि में शून्य है- देखो वहाँ क्या होता है, क्या आता है? उसमें भी दो होते हैं। आदि- जिनका ध्यान करने वालों का अलग उपासना सम्प्रदाय हो गया और शून्य में – से कैसी सृष्टि होती है वहाँ- इसको देखने वालों का सम्प्रदाय हो गया और शून्य में से कैसी सृष्टि होती है वहाँ- इसको देखने वालों का सम्प्रदाय अलग। जो कर्म है, वासना है, संस्कार है, इसी को देखते हैं। चार्वाक मत में ध्यान की कोई जरूरत ही नहीं है। खूब ध्यान लगाकर भोग करना, खूब ध्यान लगाकर धन कमाना, खूब ध्यान लगाकर सुख का अनुभव करना। योगी लोग कहते हैं- अपने लक्ष्य में चित्त की एकतानताका नाम ध्यान है। ‘तत्रैकानता ध्यानम्’ एकतानतका अर्थ है जैसे- जब जाना-बाना के रूप में सूत फैला दिया जाता है और मशीन चलती है, कपड़ा बुनता चला जा रहा है; परंतु एक सूत टूट गया और मशीन चलना बन्द हो जाती है। ऐसे ही अपने चित्तवृत्ति की धारा अपने लक्ष्य में गिरती रहे, कहीं भी टूटने न पावे, इसी को एकतानता कहते हैं, ध्यान कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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