विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरास की दिव्यता का ध्यानश्रीवल्लभाचार्य जी महाराज ने कहा कि सरसों के सेरभर दाने लेकर मूर्ति पर गिराओ। जैसे दाने ट्ट-ट्ट-टक्-टक् लगातार गिरते जा रहे हैं ऐसे अपने मन की सरसों के दाने के समान जो वृत्तियाँ हैं वे भगवान पर चढ़ती जाएँ इसका नाम ध्यान है। चैतन्य महाप्रभु ने कहा- ऐसे नहीं। एक सरसों जितनी देर शंकर जी की मूर्ति पर टिकती है- गिरते-गिरते उतना भी भगवान में मन लग जाए तो ध्यान है। बहुत अद्भुत है। श्रीमद्भागवत में कितनी परिभाषा ध्यान की दी हुई हैं-
जैसे गंगाजी की धारा लगातार समुद्र में हर-हर-हर-हर गिरती रहती है ऐसे अपना चित्त पहले तो पिघल जाय, द्रवित हो जाए, दुनियाकी पकड़- कठोरता छोड़ दे और फिर हर-हर-हर-हर भगवान में गिरे, इसका नाम ध्यान है। सांख्यवादी कहते हैं कि असंगतामात्र ही ध्यान है- दुनियाँ देखते रहो पर कहीं राग-द्वेष न होवे पावे ‘रागोपहृतिर्ध्यानम्।’ राग में मत फँसना, किसी का रंग मत चढ़ने देना।
अपने स्वरूप में बैठना यह सांख्यका ध्यान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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