विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 45रासलीला का अन्तरंग-4रासलीला का प्रसंग केवल द्वापरयुग में जब भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भाव होता है, उसी समय का नहीं है। जो वस्तु एक स्थान में, एक काल में, एक रूप में प्रकट होती है और मिट जाती है, उसको तो संसार बोलते हैं। परंतु यह जो रासलीला का वर्णन है, वह नित्य रास का वर्णन है, जो मूल तत्त्वरूप में हो रहा है। ऋग्वेद में कई ऐसे मंत्र आते हैं जिनमें कहा गया है कि परमात्मा गोप है। ठीक यही शब्द है ‘गोपा’-
राधा से माधव की और माधव से राधा की शोभा होती है। अब यह प्रश्न उठा कि जब राधा माधव केवल द्वापर के अंत में प्रकट हुए, तो वेद में जो अपौरुषेय वाणी है, ईश्वरीय वाणी है, अनादि नित्य वाणी है, राधा का, माधव का, गोपा-रूप में विष्णु का, कैसे वर्णन आता है? यहाँ तक कि वेद में व्रज का भी वर्णन आता है; यत्र गावो भूरि श्रृंगा अयासः ऋग्वेद का इस मंत्र में व्रज शब्द का प्रयोग किया गया है। जहाँ बड़ी-बड़ी सींगोंवाली गौयें चलती हैं, आती हैं, जाती हैं अर्थात वह व्रज गोलोक है। उसके भीतर भगवान विहार करते हैं। फिर ये जो उपनिषद हैं, जैसे गोपालतापिनी उपनिषद है, राधिकोपनिषद है, श्रीकृष्णोपनिषद् है, क्या ये प्रामाणिक हैं? तो देखो, हम सब उपनिषदों को प्रमाण मानते हैं। जो लोग कहते हैं कि केवल दसही उपनिषद प्रमाण हैं वे सनातनधर्म की बात को नहीं जानते। हमारे मत में तो कम से कम ग्यारह सौ इकतीस उपनिषद होने चाहिए, अभी तो दो सौ से ज्यादा मिलते ही नहीं है। और प्रत्येक उपनिषद को हम वेदरूप वैसे ही अस्मर्यमाण कर्तृक, सम्प्रदायाविच्छेदनप्राप्त अपौरुषेय मानते हैं, सबको प्रमाण मानते हैं, भला! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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