रासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरासलीला का अन्तरंग-4ये जो लोग सबको प्रमाण मानने में डरते हैं वे अपनी बुद्धि की हीनता दिखाते हैं, शास्त्र की अप्रमाणिकता नहीं दिखाते हैं। मानो वे शास्त्रों में लिखी हुई बात को जब संगत नहीं बना सकते, समन्वित नहीं कर सकते, युक्तियुक्त सिद्ध नहीं कर सकते, उसको सत्य नहीं बता सकते, तो कहते हैं हम इसको प्रमाण मानते ही नहीं है। एक पंडित था- उसने अखबार में छपा दिया कि अगर हमको इस बात में हरा दें तो हम अपनी पत्नी को हार जायेंगे, दे देंगे। अब महाराज! अखबार में छपी बात जब पत्नी के पास पहुँची और जब पंडितजी घर लौटे तो श्रीमती जी तो बहुत नाराज थीं। बोली- तुमने हमको बाजी पर लगा दिया? कहीं कोई बड़ा पंडित आया और हार गये तो? पंडित जी बोले कि पंडितानी, तुम नाराज मत होओ, जब हम मानेंगे कि हार गये तब न हार होगी, हम तो अपनी हार कभी मानेंगे ही नहीं, कैसे कोई हरायेगा? तो महाराज, जो लोग शास्त्र की संगति नहीं लगा पाते कि इसका क्या अभिप्राय है तो उसको प्रामाणिक मानने से ही इन्कार कर देते हैं। देखो, द्रव्य की भूमिका में स्थित होकर यह निर्णय होता है कि हमको क्या करना चाहिए। तथा विषय भोग में संयम होना चाहिए या दान होना चाहिए? तथा क्या संग्रह करना चाहिए और क्या दान करना चाहिए? ये निर्णय द्रव्य की भूमिका में स्थित होकर होता है। क्या कर्म करना चाहिए और क्या कर्म नहीं करना चाहिए- यह कर्मेन्द्रियों की बात है। हमारी आँखों से क्या देखें न देखें- यह ज्ञानेंद्रियों की बात हुई। मन में क्या संकल्प आवें, क्या न आवें, बुद्दि में क्या निश्चित विचार होना चाहिए। आत्मा का स्वरूप कैसा है? ये भूमिका भेद से विचार होते हैं और ये शास्त्र जितने हैं वे सब किसी न किसी भूमिका में- द्रव्यभूमिका में, कर्मभूमिका में, इंद्रिय- भूमिका में, मनोभूमिका में बुद्धि भूमिका में, संगत होते हैं, उनका अभिप्राय होता है, उनका तात्पर्य होता है। शास्त्र का एक वचन भी ऐसा नहीं है जिसको कोई असंगत, असमन्वित सिद्ध कर सके; सबका सब युक्तिपूर्ण है और अनुभव से पूर्ण है। तो ये उपनिषदें हैं- गोपालतापिनी आदि इनमें वर्णन आता है, गोपीजनवल्लभ मंत्र का, राधाजनवल्लभ का वर्णन आता है- कृष्णाय गोविन्दाय, गोपीजनवल्लभाय। |
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