योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
सत्रहवाँ अध्याय
राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका
धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, द्रोण, दुर्योधन, कर्ण तथा दूसरे भ्रातृगण एकत्रित हुए।[1] अब जब तैयारियाँ पूरी हो गई तो भाई-बन्धुओं में से यज्ञ के कार्यकर्ता नियत किये गये। श्रीकृष्ण ने अपने लिए यह काम स्वीकार किया कि जो ब्राह्मण यज्ञ कराने के लिए यज्ञशाला में आयेंगे उनके चरण धो देंगे और यज्ञशाला पर पहरा भी देंगे। इस प्रकार जब सब तैयारियाँ समाप्त हुई और यज्ञ के प्रारम्भिक कृत्य होने लगे तो अब यज्ञकर्ता की ओर से सभी अतिथियों को भेंट देने का समय आया।[2] इस विषय में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा, "हे युधिष्ठिर! अतिथियों को भेंट देने का समय आ पहुँचा है। अब तुम्हें उचित है कि प्रत्येक को यथायोग्य भेंट प्रदान करो। छः प्रकार के पुरुष तुमसे इस सम्मान को पाने के अधिकारी हैः सबसे पहले उस पुरुष के सामने भेंट रखो जिसे तुम इस सारी सभा में श्रेष्ठ समझते हो।" मुख से कह देना या लेखनी से लिखना तो सहज है, पर ऐसी प्रतिष्ठित सभा में जहाँ विद्वान और वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण और शूरवीर क्षत्रिय राजा-महाराजा बैठे थे, वहाँ यह निर्णय करना बड़ा कठिन था कि कौन इस सबमें श्रेष्ठ और सबसे अधिक गौरव का पात्र है। एक ओर धृतराष्ट्र और भीष्म जैसे सज्जन और ज्येष्ठ पुरुष, दूसरी ओर द्रोण जैसे आचार्य, तीसरी ओर शूरवीर और धनाढ्य राजा-महाराजा थे। युधिष्ठिर चकित था कि ऐसी भारी सभा में मैं किसे सबका शिरोमणि मानूँ। निदान उसने महाराज भीष्म से प्रार्थना करते हुए कहा कि आप ही मुझे बताइये कि इस महती सभा में कौन महापुरुष मुझसे पहले सम्मान[3] पाने का अधिकारी है। भीष्म ने उत्तर दिया, "हे युधिष्ठिर! इस सभा में कृष्ण सूर्य के समान चमक रहे हैं। वही सबसे बढ़कर गौरव पात्र हैं। उठिये! और सबसे पहले उन्हीं को भेंट[4] दीजिए।" युधिष्ठिर ने कहा, "तथास्तु।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिन राजा-महाराजाओं के नाम महाभारत में, राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने की सूची में दिये हैं, उनसे ज्ञात होता है कि इस यज्ञ में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजा सम्मिलित थे। दक्षिण के द्रविड़ और सिंहल के राजाओं के नाम भी उस सूची में लिखे हैं। उत्तर दिशा में कश्मीर, पूर्व दिशा में बंग (बंगाल) और पश्चिम दिशा में मालव, सिन्ध इत्यादि का।
- ↑ प्राचीन आर्यावर्त में यह रीति थी कि प्रत्येक धार्मिक कार्य के आरम्भ में कार्यकर्ता ऐसे पुरुषों को जो आदर-सत्कार के अधिकारी होते थे 'अर्घ्य' दिया करते थे। 'अर्घ्य' चंदन, फूल, फल इत्यादि में तैयार किया जाता था। हमने 'अर्घ्य' की जगह 'भेंट' शब्द का प्रयोग किया है।
- ↑ अर्घ्य
- ↑ अर्घ्य
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