योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 85

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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सोलहवाँ अध्याय
कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन


जब भीम और जरासंध की जोड़ी ठहर गई तो राजा जरासंध ने बहुत-से ब्राह्मणों को यज्ञ करने के लिए कहा और स्वयं राजमुकुट उतार, केश बाँधकर लड़ने के लिए मैदान में उतर आया। उधर से भीम भी मुकाबले के लिए आ गया और दोनों में हाथापाई होने लगी। चौदह दिन तक मल्लयुद्ध हुआ और दोनों ने ही अपने दाँव-पेंच का अन्त कर डाला, पर कोई भी पराजित नहीं हुआ। निदान चौदहवें दिन जरासंध का दम टूट गया। जरासंध को थका हुआ देखकर कृष्ण ने भीम को ललकारकर कहा कि थके हुए शत्रु पर हाथ चलाना उचित नहीं। इस पर भीम ने कहा, "यह नहीं मानता कि मैं थक गया हूँ, और अभी लड़ने को मेरे सामने खड़ा है। अतएव मैं भी किस तरह हट सकता हूँ।" लड़ाई फिर होने लगी और भीम ने जरासंध को उठाकर इस जोर से भूमि पर दे मारा कि उसका काम वहीं तमाम हो गया।

जरासंध के मरते ही कृष्ण ने भीम व अर्जुन को रथ पर सवार कराया और आप सारथी बनकर दुर्ग में प्रवेश किया। उन्होंने सबसे पहले उन राजाओं को बन्दीगृह से छुटकारा दिलाया जो वर्षों से उसमें पड़े सड़ रहे थे। फिर उन सबको अपने साथ लाकर नगर से बाहर एक शिविर में रखा।

इन सब राजाओं ने कृष्ण के समक्ष हीरे आदि रत्नों की भेंट चढ़ाई प्रसन्नतापूर्वक अपने लिए कुछ सेवा का आदेश करने की याचना की।

इस पर कृष्ण महाराज ने उत्तर दिया, महाराजा युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं। आपको चाहिए कि उनको इस यज्ञ में सहायता देकर उनके प्रति अपनी भक्ति को सिद्ध करें। इस बात को सुनकर सारे राजाओं ने एकमत होकर इसे स्वीकार किया। जरासंध का पुत्र सहदेव भी भेंट लेकर उपस्थित हुआ और महाराज कृष्णचन्द्र ने प्रसन्न होकर सबके सामने उसका राजतिलक कर दिया और पिता की गद्दी पर बिठाया। इन कामों से निश्चित होकर वे वहाँ से से चले आये।
यह सारा प्रसंग प्राचीन भारतवर्ष की युद्धकला की जानकारी देता है।

(1) महाराज कृष्ण का स्नातक के वेष में फूल माला पहनकर जरासंध के दरबार में जाना।
(2) सदर फाटक से नगर में न प्रवेश करना।
(3) जरासंध की पूजा न लेना और निर्भय होकर अपने विचार प्रकट करना।
(4) जरासंध का भी उनकी इस कार्यवाही पर क्रुद्ध न होना और युद्ध की चुनौती को स्वीकार कर लेना।
(5) जरासंध के मारे जाने पर उसके पक्ष वालों का अपनी हार मानना और कृष्ण आदि पर चढ़ाई न करना।
(6) कृष्ण का जरासंध के पुत्र को गद्दी पर बिठाना, इत्यादि ऐसी घटनाएँ हैं जो आर्यजाति की उच्च सभ्यता को भली-भाँति प्रमाणित करती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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