गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 23

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 1

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते।।1।।

अर्थात, गोपाङ्‌गनाएँ कह रही हैं, “हे श्याम-सुन्दर! आपके जन्म के कारण स्वभावतः महामहिम व्रजधाम पूर्वापेक्षा एवं सर्वापेक्षा अधिकाधिक उत्कर्ष को प्राप्त हो रहा है क्योंकि वैकुण्ठवासिनी भगवती इन्दिरा भी आपकी सेवा के उपयुक्त् अवसर की प्रतीक्षा में यहाँ सतत आश्रयण कर रही हैं तदपि हम ‘त्वदीयत्वाभिमानिन्यः, त्वयि धृतासवः’ व्रज-वनिताएँ आपके विप्रयोगजन्य सन्ताप से सन्तप्त हो उत्यन्त क्षीण हो इतस्ततः भटकती हुई भी आपके निमित्त ही प्राण-धारण की हुई हैं। हे दयित! आविर्भूत होकर हमें देखो।”

‘जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः’ जैसी उक्ति से गीत का प्रारम्भ होता है। ‘जयति’ शब्द द्वारा गोपाङ्‌गनाएँ अभीष्ट-प्राप्ति एवं विघ्न-निवृत्ति हेतु मंगलाचरण करती हैं।
उपर्युक्त उक्ति में प्रयुक्त ‘अधिकं’ शब्द सापेक्ष अर्थ-द्योतक है एतावता इस उक्ति का तात्पर्य है कि भगवान् श्रीकृष्ण के आविर्भाव के कारण व्रजधाम ‘पूर्वतोवा, सर्वतोवा, श्री वैकुण्ठादपि वा अधिकं यथा स्यात्‌ तथा जयति’ अर्थात व्रजधाम पूर्वापेक्षा, सर्वापेक्षा तथा वैकुण्ठधाम की भी अपेक्षा अधिक उत्कर्ष को प्राप्त हो रहा है। किंवा, ‘अधि सर्वतः कं सुखं यथा स्यात्तथा जयति’ अर्थात सर्वाधिक सुख व्रजधाम में ही हो रहा है अतः व्रजधाम विशेष उत्कर्ष को प्राप्त हो रहा है।

उपासना के अन्तर्गत नाम, रूप, लीला एवं धाम चारों का ही विशिष्ट महत्त्व है। मान्य है कि जैसे लीला हेतु भगवान श्रीमन्नारायण विष्णु का अवतरण होता। वैसे ही वैकुण्ठधाम का भी अवतरण होता है। अवतरण का अर्थ है ऊँचे से नीचे उतरना; गोलोकधाम में अथवा स्वस्वरूपभूत परमानन्द सुधासिन्धु में विराजमान स्वप्रकाश, पूर्णतम पुरुषोत्तम, प्रभु श्रीमन्नाराण जीवानुग्रहार्थ संसार में अवतीर्ण होते हैं। जैसे कोई राजाधिराज शाहंशाह चक्रवर्ती सम्राट् नरेन्द्र बन्दियों के कल्याणार्थ यदा-कदा कारागार में भी अवतीर्ण होते हैं, वैसे ही, अविद्या-काम-कर्ममय संसार में अविद्या-काम-कर्मातीत, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान् प्राणियों के कल्याणार्थ उवतीर्ण होते हैं; साथ ही, उनके स्वस्वरूप-भूत-सुधासिन्धु, गोलोकेधाम का भी जीव-कल्याणार्थ आविर्भाव होता है अतः व्रजधाम रूपान्तर से साक्षात् गोलोकधाम ही हैं। जैसे व्यवहारतः नेत्र-गोलक को ही नेत्र संज्ञा दी जाती है तथापि वस्तुतः नेत्र तो नेत्र-गोलक-निहित अतीन्द्रय होता है, वैसे ही, व्रजधाम में व्रजतत्त्व अन्तर्निहित होता है।

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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