हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 282

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
नागरीदास जी


चरित्र- 'नागरीदास जी बेरछा के रहने वाले थे और पंवार क्षत्रिय कुल में उत्‍पन्‍न हुए थे। उनको स्‍वामी चतुर्भुज दास जी के सड़ग से रस-भक्ति का रंग लगा और वे वृन्‍दावन आकर श्री गोस्‍वामी के शिष्‍य बन गये। उनकी पत्‍नी उनसे पीछे आई और दोनों ने एक साथ ही दीक्षा ली।

'उनको श्री हिताचार्य की वाणी से अत्‍यन्‍त प्रेम था। वे प्रति दिन हित-वाणी के किसी एक पद को उठा लेते और चोबीसो घंटे उसी की भावना में मग्‍न रहते थें। हित-वाणी के आगे उनको श्रीमदभागवत की कथा भी फींकी लगती थी और यथा संभव वे उसका श्रवण नहीं करते थे। जो लोग वृन्‍दावन-रस-रीति से रहित थे, वे उनकी यह गति देख कर दु:ख पाते और गुरूकुल से इस बात की शिकायत करते रहते थे।

'उस समय श्री वनचन्‍द्र गोस्‍वामी के पुत्र नागरवर गोस्‍वामी राधावल्‍लभ जी के मन्दिर में भागवत की कथा कहते थे। चुगल-खोरों ने उनको नागरीदास जी के के विरूद्ध भड़का दिया। एक दिन नागरवर जी ने नागरीदास जी से कहा, 'आज कल दशम स्‍कंध की कथा हो रही हैं, इसको तो आपको अवश्‍य श्रवण करना चाहिये।' नागरीदास जी गुरू-आज्ञा मानकर कथा में पहुंचे तो वहां धेनुक-वध का प्रसंग चल रहा था। कथा में, भगवान ने धेनुक के पैर पकड़ कर जैसे ही उसे पछाड़ा, नागरी-दास जी अकुला कर खड़े हो गये और कथा-स्‍थल छोड़कर अपने घर चले गये। उनके इस आचरण से सब लोग चकित हो गये। बाद में, गोस्‍वामी नागरवर जी ने उनको शपथ दिला कर कथा छोड़कर चले जाने का कारण पूछा तो उन्‍होंने बतलाया कि वे हित प्रभु के एक पद की भावना में मग्‍न थे कि भगवान के द्वारा धेनुक के पैर पकड़ कर उसको पछाड़ने की बात उनके कानो में पड़ी और उनका मन यह सोचकर घबरा गया कि जो श्‍यामसुन्‍दर मानवती श्री राधा की सुन्‍दर चि‍बुक सहला कर उनके मान को दूर करते है, उनके हाथों में गधे के पैर कैसे शोभा देगे!

चि‍बुक सुचारू प्रलाइ प्रबोधत,[1]
तिन कर गदहनि पग क्‍यों सोभत![2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चिबुक सुचारू प्रलोइ प्रबोधित, पिय प्रतिबिम्‍ब जनाइ निहोरी।
  2. हि. च. 7

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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