नव कुम-कुम जल बरसत जहां, उड़त कपूर धूर जहां-तहां।
और फूल-फल को गनै।।
तहां श्याम धन रास जु रच्यो, मरकत मनि कंचन सो खच्यो।
शोभा कहत न आवहीं।।
जोरि मडली जुवतिनि बनी, द्वै-द्वै बीच आपु हरि धनी।।
अदभुत कौतुक प्रगट कियौ।
घूंघट मुकट विराजत सिरन, शशि चमकत मनौ कौतुक किरन।
रास रसिक गुन गाइहों।
नील कंचुकी मांडनि लाल, भुजनि नवैया उर वनमाल।
पीत पिछौरी श्याम तन।।
सुन्दर मुदरी पहुंची पानि, कटि-तन कछनी किंकिन बानि।
गुरू नितम्ब बैनी रूरै।।
तारा मंडल सूथन जघन, पाइनि पैजनि नूपुर सघन।
नखनि महावर खुलि रहयो।
राधा मोहन मंडल मांझ, मनहुं विराजत संध्या-सांझ।
रास रसिक गुन गाइहों।।