हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 253

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
श्रीहरिराम व्‍यास (सं. 1549-1655)


नवलदास जी ने हितजी के इष्‍ट श्रीराधावल्‍लभ बताये और व्‍याजी को 'नित्‍य-विहार का रहस्‍य समझाया। उन्‍होंने व्‍यासजी से कहा 'तुम वृन्‍दावन चल कर परम सुख की प्राप्ति करो और हरिवंश को अपना गुरू बनालो।'

नवलदास को संग लेकर व्‍याजी कार्ति कारंभ में वृन्‍दावन आये। हित जू उनको मंदिर में मिले और व्‍यासजी के नेत्र उनका दर्शन करके शीतल हो गये। गुसाई जी उस समय ठाकुर जी के लिये पाक रक रहे थे। व्‍यासजी की इच्‍छा उनसे उसी समय चर्चा करने की थी। हितप्रभु ने यह देखकर चूल्‍हे पर से 'टोकनी' उतार कर नीचे धर दी और अग्नि को बुझा दिया। व्‍यासजी बोले ' आप रसोई और चर्चा एक साथ कर सकते थे। करना-धरना हाथ का धर्म है और कहना-सुनना मुख और कान का कार्य है'। हित प्रभु ने उसी समय व्‍यासजी को एक पद सुनाया और उनके सम्‍पूर्ण संदेहों को नष्‍ट कर दिया। उस पद की प्रथम पंक्ति है,

'यह जु एक मन बहुत ठौर करि कहि कोने सचुपायो।'[1]

इस पद में हितजी ने बताया कि वह काल-ग्रसित प्रपंच नाशवान है और प्रभु के भक्‍त ही नित्‍य हैं। व्‍यासजी ने इस पद को सुनकर हितप्रभु के चरण पकड़ लिये और उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की,

शिक्षा दै के दिक्षा दीजे-अब तो मोहि आपुनों कीजे।

हितजी ने उनकी श्रद्धा देखकर उनको श्रीराधा से प्राप्‍त मंत्र[2] सुना दिया,

श्रद्धा लखि निज मंत्र सुनायो
भयो व्‍यास के मन को भायो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हित.च. 59
  2. निजमंत्र

संबंधित लेख

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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