कर यत्न योगी आपमें इसको बसा पहिचानते॥
पर यत्न करके भी न मूढ़, अशुद्ध आत्मा जानते॥11॥
जिससे प्रकाशित है जगत्, जो तेज दिव्य दिनेश में॥
वह तेज मेरा तेज है, जो अग्नि में राकेश में॥12॥
क्षिति में बसा निज तेज से, मैं प्राणियों को धर रहा॥
रस रूप होकर सोम सारी पुष्ट औषधि कर रहा॥13॥
मैं प्राणियों में बस रहा, हो रूप वैश्वानर महा॥
पाचन चतुर्विध अन्न प्राणापान-युत होकर रहा॥14॥
सुधि ज्ञान और अपोह मुझसे मैं सभी में बस रहा॥
वेदान्तकर्ता वेदवेद्य सुवेदवित् मुझको कहा॥15॥