श्रीभगवान् बोले-
मुझमें लगा कर चित्त मेरे आसरे कर योग भी।
जैसा असंशय पूर्ण जानेगा मुझे वह सुन सभी॥1॥
विज्ञान-युत वह ज्ञान कहता हूँ सभी विस्तार में।
जो जानकर कुछ जानना रहता नहीं संसार में॥2॥
कोई सहस्रों मानवों में, सिद्धि करना ठानता।
उन यत्नशीलों में मुझे कोई यथावत् जानता॥3॥
पृथ्वी, पवन, जल, तेज, नभ, मन, अहंकार व बुद्धि भी।
इन आठ भागों में विभाजित है प्रकृति मेरी सभी॥4॥
हे पार्थ! वह 'अपरा' प्रकृति का जान लो विस्तार है।
फिर है 'परा' यह पुरुष जो संसार का आधार है॥5॥