श्रीभगवान् बोले-
अब दोषदर्शी तू नहीं यों, गुप्त, सह-विज्ञान के।
वह ज्ञान कहता हूँ, अशुभ से मुक्त हो जन जान के॥1॥
यह राजविद्या, परम-गुप्त, पवित्र, उत्तम-ज्ञान है।
प्रत्यक्ष फलप्रद, धर्मयुत, अव्यय, सरल, सुख-खान है॥2॥
श्रद्धा न जिनको पार्थ है इस धर्म के शुभ सार में।
मुझको न पाकर लौट आते मृत्युमय संसार में॥3॥
अव्यक्त अपने रूप से, जग व्याप्त मैं करता सभी।
मुझमें सभी प्राणी समझ, पर मैं नहीं उनमें कभी॥4॥
मुझमें नहीं हैं भूत देखो योग-शक्ति-प्रभाव है।
उत्पन्न करता, पालता, उनसे न किन्तु लगाव है॥5॥