सवैया
मोहन के मन भाइ गयौ इक भाइ सों ग्वालिनै गोधन बायो।
ताकों लग्यौ चट, चौहट सों दुरि औचक गात सों गात छबायौ।
रसखानि लही इनि चातुरता चुपचाप रही जब लों घर आयो।
नैन नचाई चित्तै मुसकाइ सू ओठ ह्वै जाइ अँगूठा दिखायौ।।156।।
कान परे मृदु बैन मरु करि मौन रहौ पल आधिक साधे।
नंद बबा घर कों अकुलाय गई दधि लैं बिरहानल दाधे।
पाय दुहूननि प्राननि प्रान सों लाज दबै चितये दृग आने।
नैननि ही रसखान सनेह सही कियो लेउ दही कहि राधे।।157।।
केसरिया पट, केसरि खौर, बनौ गर गुंज को हार ढरारो।
को हौ जू आपनी या छवि सों जुखरे अँगना प्रति डीठि न डारो।
आनि बिकाऊ से होई रहे रसखानि कहै तुम्ह रौकि दुवारो।
'है तो बिकाऊँ जौ लेत बनैं हँसबोल निहारो है मोल हमारो।।158।।