सुजान-रसखान पृ. 43

सुजान-रसखान

नटखट कृष्‍ण

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सवैया

एक ते एक लौं कानन में रहें ढीठ सखा सब लीने कन्‍हाई।
आवत ही हौं कहाँ लौं कहीं कोउ कैसे सहै अति की अधिकाई।।
खायौ दही मेरो भाजन फोर्यौ न छाड़त चीर दिवाएँ दुहाई।
सोंह जसोमति की रसखानि ते भागें मरु करि छूटन पाई।।100।।

आज महूँ दधि बेचन जात ही मोहन रोकि लियौ मग आयौ।
माँगत दान में आन लियौ सु कियो निलजी रस जोवन खायौ।।
काह कहूँ सिगरी री बिथा रसखानि लियौ हँसि के मुसकायौ।
पाले परी मैं अकेली लली, लला लाज लियो सु कियौ मनभायौ।।101।

पहलें दधि लैं गई गोकुल में चख चारि भए नटनागर पै।
रसखानि करी उनि मैनमई कहैं दान दे दान खरे अर पै।।
नख तें सिख नील निचोल पलेटे सखी सम भाँति कँपे र पै।।
मनौ दामिनि सावन के घन में निकसे नहीं भीतर ही तरपै।।102।।

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