कवित्त
कंचन के मंदिरनि दीठि ठहराति नाहिं,
सदा दीपमाल लाल-मनिक-उजारे सों।
और प्रभुताई अब कहाँ लौं बखानौं प्रति -
हारन की भीर भूप, टरत न द्वारे सों।
गंगाजी में न्हाइ मुक्ताहलहू लुटाइ, वेद,
बीस बार गाइ, ध्यान कीजत, सबारे सों।
ऐरे ही भए तो नर कहा रसखानि जो पै,
चित्त दै न कीनी प्रीति पीतपटवारे सों।।22।।