सहज गीता -रामसुखदास पृ. 74

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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तेरहवाँ अध्याय

(क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग)

हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! स्थावर और जंगम जितने भी प्राणी हैं, वे सब के सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से पैदा होते हैं। क्षेत्रज्ञ के द्वारा शरीर के साथ मैं-मेरेपन का संबंध मानना ही ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का संयोग’ है। जो षिषय प्राणियों में ‘सम’- रूप से स्थित और प्रतिक्षण नाश की तरफ जाने वाले प्राणियों में ‘अविनाशी’- रूप से स्थित परमेश्वर को देखता है, वही वास्तव में सही देखता है। कारण कि जो मनुष्य शरीर के साथ अपनी अभिन्नता मानता है, शरीर के जन्म से अपना जन्म तथा शरीर की मृत्यु से अपनी मृत्यु मानता है, वह अपने द्वारा अपनी हत्या करता है अर्थात् अपना पतन करता है, अपने को जन्म-मरण के चक्कर में ले जाता है। परंतु जो मनुष्य सब जगह समरूप परमात्मा को देखता है अर्थात् परमात्मा के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव करता है, वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता। इसलिए वह परमगति (परमात्मा)- को प्राप्त हो जाता है।
प्रकृति में निरंतर क्रिया होती है, जबकि स्वयं में कभी कोई क्रिया नहीं होती। जब मनुष्य इस क्रियाशील प्रकृति के साथ अपना संबंध जोड़ लेता है, तब शरीर के द्वारा होने वाली क्रियाएँ अपने में प्रतीत होने लगती हैं। परंतु जो मनुष्य संपूर्ण क्रियाओं को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा की जाती हुई देखता है और अपने-आपको (स्वयं को) अकर्ता देखता अर्थात् अनुभव करता है, वही वास्तव में ठीक देखता है। जिस समय साधक संपूर्ण प्राणियों के अलग-अलग शरीरों को एक प्रकृति में ही स्थित तथा प्रकृति से ही उत्पन्न देखता है, उस समय उसका प्रकृति से संबंध विच्छेद हो जाता है और वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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