विषय सूची
सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
तेरहवाँ अध्याय(क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग)हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! स्थावर और जंगम जितने भी प्राणी हैं, वे सब के सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से पैदा होते हैं। क्षेत्रज्ञ के द्वारा शरीर के साथ मैं-मेरेपन का संबंध मानना ही ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का संयोग’ है। जो षिषय प्राणियों में ‘सम’- रूप से स्थित और प्रतिक्षण नाश की तरफ जाने वाले प्राणियों में ‘अविनाशी’- रूप से स्थित परमेश्वर को देखता है, वही वास्तव में सही देखता है। कारण कि जो मनुष्य शरीर के साथ अपनी अभिन्नता मानता है, शरीर के जन्म से अपना जन्म तथा शरीर की मृत्यु से अपनी मृत्यु मानता है, वह अपने द्वारा अपनी हत्या करता है अर्थात् अपना पतन करता है, अपने को जन्म-मरण के चक्कर में ले जाता है। परंतु जो मनुष्य सब जगह समरूप परमात्मा को देखता है अर्थात् परमात्मा के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव करता है, वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता। इसलिए वह परमगति (परमात्मा)- को प्राप्त हो जाता है।
|
संबंधित लेख
अध्याय | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज