सहज गीता -रामसुखदास पृ. 73

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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तेरहवाँ अध्याय

(क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग)

प्रकृति (जड़) और पुरुष (चेतन)- इन दोनों को ही तुम अनादि समझो। अनादि होने पर भी दोनों के स्वरूप में बड़ा फर्क है। सभी विकार तथा गुण (सत्त्व रज तम) प्रकृति से उत्पन्न होते हैं, पर पुरुष में विकार तथा गुण नहीं है। कार्य (पंचमहाभूत तथा शब्दादि पाँच विषय) और करण (दस इन्द्रियाँ तथा मन-बुद्धि-अहंकार)- इनके द्वारा जो भी क्रियाएँ होती हैं, वे सब प्रकृति से ही होती हैं। परंतु अनुकूलता में सुखी होना और प्रतिकूलता में दुखी होना- यह सुख-दु:ख का भोग पुरुष में ही होता है, प्रकृति में नहीं। वास्तव में प्रकृति के कार्य शरीर के साथ अपना संबंध जोड़ने से ही पुरुष भोक्ता बनता है। गुणों का संग करने से अर्थात् शरीर को 'मैं' और 'मेरा' मानने से ही पुरुष ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेता है।
जैसे मनुष्य पुत्र के संबंध से 'पिता', पत्नी के संबंध से 'पति', बहन के संबंध से 'भाई' आदि बन जाता है, ऐसे ही यह पुरुष शरीर के साथ संबंध रखने से 'उपद्रष्टा', उसके साथ मिलकर सम्मति, अनुमति देने से 'अनुमन्ता', अपने को शरीर का भरण-पोषण करने वाला मानने से 'भर्ता', उसके संग से सुख-दुख भोगने से 'भोक्ता' और अपने को शरीर का मालिक मानने से 'महेश्वर' बन जाता है। परंतु स्वरूप से यह पुरुष 'परमात्मा' कहा जाता है। यह इस शरीर में रहता हुआ भी वास्तव में शरीर के संबंध से सर्वथा रहित है। इस प्रकार जो मनुष्य गुणों से रहित पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को अलग-अलग अनुभव कर लेता है, वह शास्त्रविहित सब कर्म करते हुए भी फिर जन्म नहीं लेता अर्थात् जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है। कई मनुष्य ध्यानयोग के द्वारा, कई ज्ञानयोग के द्वारा और कई कर्मयोग के द्वारा अपने-आपसे अपने आपमें परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं। जो मनुष्य ध्यानयोग, ज्ञानयोग आदि साधनों को नहीं जानते, पर जिनके भीतर तत्त्वप्राप्ति की तीव्र अभिलाषा है, ऐसे मनुष्य भी जीवन्मुक्त महापुरुषों की आज्ञा का तत्परतापूर्वक पालन करने से तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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